रविवार, अक्तूबर 07, 2007
आत्म-........
पसीने से तराबोर
ख़ून से लथपथ
असहाय निराधार
कुछ ने मुह फेर लिया
कईयों ने बस घेर लिया
काना फूसी चलने लगी
"लगता भले घर का लगता हे भाई
कुछ मज़बूरी रही होगी"
अमबुलंस बुला दो कोई
भीड़ मे से एक आवाज़ आयी
"चलो,चलो,पुलिस केस हे
२०वि मंज़िल से छलांग हे लगाई"
भीड़ की फुसफुसाहट मे
उसकी आहे दब सी गयी
जब तक अमबुलंस आयी
साँसे थम थी गयी
एक क्षण के ग़ुस्से में
एक गलती उसने की
दूसरे पल के किस्से में
गलती औरों से हो गयी
एक बहते भाव की रवानी मे
एक और जिन्दगी फना हो गयी.......
शनिवार, सितंबर 22, 2007
नया जहाँ
इक दूजे में हम समां जाये
अब दुनिया से मन भर गया हे
कुछ सपनो की दीवारे बनाए
हसीं खयालों से उन्हें सजाए
ईंट पत्थर से ना हो वास्ता
आओ कुछ मिटटी गारा ले आये
कुछ तुमसा कुछ मुझसा बनाए
अब खिलोने से दिल भर गया
आओ कहीँ दूर निकल जाये
शांति और अमन को अपनाए
ख़ून खराबे से हो किसका भला
शुक्रवार, सितंबर 14, 2007
कुछ त्रिवेनियाँ .......
बहुत तेज़ पर रफ़्तार तेरी
ए मौत तू जीतेगी जंग आज......
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ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त का बाज़ार है गरम साहिब
हुस्न,इश्क़ और जज़्बात बहुत बिकते हैं यहाँ
वफ़ा और क़ुर्बानी की क़ीमत पर है बहुत कम....
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जोड़ के रक्खा था जिसने सबको
तागा वो आज पर चटक हीगया
टूटे टुकड़े ज़ख़्म छोड़ गये गहरे......
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जादूगर ज़ो छू मंतर बोलेगा
दिखते को ग़ायब कर देगा
नफ़रत करे फ़ना तो शफा मानू ........
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मा के पल्लू में छुपा करती थी जो कल् तक
आज शर्मा के अपने आँचल में सिमटी बैठी है
पराया धन है ज़ो ले जाएँगे डोली में कहार.......
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गुरुवार, सितंबर 06, 2007
कांच के रिश्ते
जब शक्ल देनी चाही
तो हाथ खुद ब खुद ही
मिटटी में सन् गए हैं
कोशिश हमारी ये थी
की हो जाये चराग रोशन
दिया बाती की जलती लौ ने
दमन फकत किये हैं
दूजे के कांधे
को हम
दीवार
तो हे समझे
पर औरों की क्या परवा
उनको पडे ज़रूरत
तो आँचल में अपने छुप कर
आगे निकल रहे हैं
हमने तो सिर्फ था चाहा
एक नेक काम करना
शर्मिंदगी से हम ही
खुद मे सिमट रहे हैं
हे कांच के सब रिश्ते
पल भर में चिट्कते हे
ऐसी फकत ही दुनिया
ऐसे फकत हे नाते
क्या कहे क्या सुने हम
सम् मौन अब रखते हैं
बुधवार, सितंबर 05, 2007
वंश वृद्धि
नारी जननी से भक्षक कैसे बन सकती हे। मेरे मॅन को ये सवाल कचोट रहा था।
"क्या हुआ बहु जी , क्यों परेशान हो रही हो ?" कमरे मे झाड़ू लगाती मेरी मेहरी उषा ने पूछा ।
उषा और उसकी पन्द्रह साल की बेटी पूजा हमारे यहाँ झाड़ू कटके का काम करती हे। २ बेटे और ४ बेटियों की माँ उषा हमारे यहाँ कई सालो से हे . बेटे निकम्मे हे और पति शराबी ,इसलिये उसकी लड़कियां काम मे उसकी मदद करके घर चलता हे । कितनी बार उसने मार के निशाँ दिखाए हे जों उसके बेटो और पति के अत्याचार की कहानी कहते हे।
"लिखा हे , दो हफ्तों में ये दूसरी घटना हे की एक माँ ने अपनी नवजिवित कन्या का गला दबा कर हत्या कर दी थी। क्या लड़की होना इतना बड़ा अभिशाप हे?" मैने बताया.
"नही बहु जी, उनकी कोई मज़बूरी रही होगी।अपना जना कोई क्यों मरेगा भला, अभागी लड़की ही जनि हो . वैसे एक लड़का होना भी तो ज़रूरी हे . मैं तो कहती हूँ भगवन तुम्हे भी इस बार लड़का ही दे, पिछले बार लड़की हो गयी सो हुई . वंश को भी तो आगे बदना हे।" उषा का जवाब था.
मैं निशब्द थी और हैरान भी। हमारे देश मे रुदिवादिता ने ऐसा डेरा डाला हे की एक औरत ही औरत के महत्त्व को नही समझती। क्या ये समय बदलेगा ???
रविवार, अगस्त 12, 2007
अम्मा जी :भाग II
सम्मानित होने वाले और सम्मान देने वालो में बहुत नामी हस्तिया थी.नंदिनी के लिए ये एक नया अनुभव था। उसने हौले से सूरज से पूछा "शेखर भाई साहब को किस किताब के लिए सम्मान मिल रहा हे "
" शेखर ने अपनी माँ की जीवन पर एक नोवेल लिखा हे "अम्माजी :कांटो से गुज़रा जीवन" ,बेस्ट सेलर रहा हे और उसी के लिए सर्कार उसे सम्मान दे रही हे "सूरज ने नंदिनी को बताया ।
"शेखर जी की माँ,कहॉ रहती हैं?"
" भोपाल मे, शेखर उनसे मिलने ही पिछले महीने आया था ,यहाँ से फिर उनके पास जाएगा .नंदू पता हे,शेखर की माँ विधवा थी, बहुत जतन से उसको पाल पोस कर उसे इतना लायक बनाया ".
कहीँ अम्माजी के बेटे शेखर जी तो नही...??? नंदिनी ने मन ही मन सोचा और बहुत उदास हो गयी ।
स्टेज पर अवार्ड घोषित हो रहे थे। अब शेखर की बारी थी ...
" सम्मान को स्वीकारते हुए शेखर की आंखो मे आंसू थे ...स्वीकृति स्पीच मे शेखर ने अपनी माँ को अपनी जीवन की प्रेरणा बताया ,वे बोले " मेरी माँ ने जीवन मे कुछ नही माँगा ,सिर्फ मेरी तरक्की और भले की कामना रखी। मे आज तक सोचता रहा की मैंने उन्हें फ़ोन करके, पैसा भेज कर,साल मे दो बार मिल कर अपना फ़र्ज़ पूरा करता रहा और अब उनके जीवन पर किताब लिख कर ,दुनिया को उनके संगर्ष के बारे मे बता कर अपने बेटे होने का कर्ज़ उतार दिया पर मे कितना गलत था .....आज जब मैंने ओने मित्र की धरम्पतनी,नंदिनी भाभी के मुँह से अपनी माँ जैसी एक और वृधा की कथा सुनी तो मुझे एहसास हुआ की माँ को उन सब चीजो की ज़रूरत नही जों मैं उन्हें भेजता था,जीवन एक अन्तिम छोर पर उन्हें मेरे प्यार और साथ की ज़रूरत हे। मुझे अनजाने ही सही,पर ये बोध कराने के आपका बहुत शुक्रिया भाभी......"
सारा हाल तालियों से गूँज रहा था और बहुत कुछ आंखें नम थी।अप्रवासी दिवस पर माँ की प्रभुद्ता को इतना बड़ा सम्मान जों मिल था।
शायद कुछ और अम्माजी अपने परिवारो का अब साथ पा जायेंगी। छलकते आंसुओं को रोकते हुए नंदिनी के होंठों पर एक हलकी सी मुस्कराहट फेल गयी ।
**************************एक नयी शुरुवात *****************************
बुधवार, जुलाई 18, 2007
अम्मा जीं :भाग I
" कौन शेखर ? " रसोईघर से निकलने नंदिनी ने पूछा .
"अरे ,मेरा कालेज के समय का घनिस्ष्ट मित्र था ,कालेज के बाद साथ नही रहा . फिर पिछले महीने मैं भोपाल गया था ,वही "जहाँ आरा "मे अचानक हे गए । बात तो नही हो पायी , उसकी फ्लिघ्त का वक्त था ,बस नुम्बेर बदले "सूरज बोले
" फिर "?
" फिर, अभी फोन आया ही की कल् रात की फ्लाईट से आ रहा हे तीन दिन के लिए "
"कैसे आना हो रहा हे उनका "नंदिनी ने पूछा
"अप्रवासी भारतीय दिवस हो रहा हे आयी एच सी मे,सरकार शेखर को सम्मानित कर रही हे,कल् रात को पहूचेगा और दो तीन दिन हमारे यहाँ ही ठहरेगा"सूरज बोले
"अच्छा "
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अगले दिन :
"लो शेखर,पहुच गए घर"टेक्सी का दरवाजा बंद करते हुये सूरज बोले
"भाभी जी।कैसी ही आप?"
"नमस्कार भाईसाहब। आपका सफ़र कैसा रहा "
"अछा था भाभी. एक प्याला गरम गरम चाय मिल जाये तो मज़ा आ जाएगा"शेखरबोले
"जी,अभी लायी" नंदिनी दौडती हुई रसोई गयी और चाय नाश्ता ले लायी।
पूरी रात दोनो दोस्तो की बातो मे गुज़र गयी .......
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अगला दिन:
सूरज आपने दफ़्तर चले गए और शेखर जैट लेग की वजह से देर दोपहर तक सोते रहे
दोपहर बाद का समय बनती और सोनू के साथ खेलने मे बिता दिया।बहुत जल्दी घुल मिल गए थे शेखर दोनो के लिए बहुत सारे खिलोने और चोक्लेत भी लाए
प्रोग्राम शाम के सात बजे क था और शेखर ने हम दोनो को साथ चलाने का न्योता दिया
दोपहर बाद से ही बादल घिर आये थे,५ बजते बजते ज़ोर दार बारिश शुरू हो गयी।
"बारिश के मौसम मे पकोदो का मज़ा ही अलग हे भाभी" आसमान को देखते हुये शेखर
"जी,ज़रूर, अभी बनाति हू चाय के साथ"मैने मुस्कुराते हुएय जवाब दिया।मुझे शेखर क स्वभाव अछा लगा,सौम्य,शान्त,घमन्ड का लेश मात्र भी नही।
शेखर भी गैस्ट रूम से ड्राइन्ग रूम मे आ गये। कमरे मे बैठे हुए उनकी नज़र शो केस मे लगी तस्वीरो पर पडी।तभी अचानक एक तस्वीर को देख कर ठिठक से गए.
"पकोडे तैय्यार हे भाइसाहब"नन्दिनी कमरे मे आते हे बोली
'अरे हा,हां लाईये ना भाभी और आपकी चाय कहॉ हे :"
"जी अभी आयी" कबसे सोच रही थी शेखर से उनके सम्मान के बारे मे पूछ्ना ,तो अब पूछूँगी
"ये तस्वीरे बहुत प्यारी हे,आप लोग घूमना पसन्द करते हे"शेखर ने पूछा।
"जी बहुत नही,साल मे एक बार गर्मियो क छुट्टियों मे कही चले जाते हे,पर कभी इन्डिया से बाहर नही गये"नन्दिनी
"वहा कोने मे जो एक तस्वीर हे,एक बुजुर्ग महिला हे,वो आपकी……।"
"जी, वो अम्मा जी हे,मेरी मा…"
"आपकी मा…???"
"जनम तो नही दिया पर बहुत प्यर दिया था अम्माजी ने मुझे"नन्दिनी
"बात पिछले साल की हे,सूरज का तबादला दिल्ली हो गया था पर बच्चो के स्चूल की वजह से मुझे भोपाल मे एक साल अकेले रहना पडा। एक बार मे बहुत बीमार पड गयी और बच्चे बुरी तरह से घबरा गये बस तभी मुलाक़ात हुई अम्माजी से। हुमारे पडोस मे रहती थी वो, बच्चे मदद मान्गने के लिये गये और वो तुरन्त आ गयी।मेर पूरा घर सम्भाला,मेरी सेवा की और जब तक मे ठीक नही हुई वो हुमारे साथ ।
मेरी माँ नही हे भाईसाहब,अम्माजी मे मुझे माँ मिली"
"उनका परिवार……।" शेखर ने
"एक बेटा हे,कही विदेश मे हे आपने परिवार के साथ ,कभी बताया नही उन्होने उसके बारे मे, बहुत स्वाभिमानी थी अम्माजी,उनका बेटा जो पैसे भेजता था,वो सारे अनाथालय मे दान कर देति। आपको पता हे,विधवा थि अम्मा जी,बडे जतन से बेटे को पाला पोसा,और वो उन्हे भूल गया। सोचा कि माँ को हर महीना पैसा भेज कर,एक फोन करके फ़र्ज़ पूरा हो गया'
"आपके आने के बाद फिर मुलाक़ात हुइ,कोई सम्पर्क …॥"शेखर ने पूछा
"नही,मे घर सेट करने मे बिसी हो गयी,पर अब ज़रूर एक दिन फोने करुन्गी"
"वो भाभी,दरसरल्……"इतना की कहा था शेखर ने कि नीचे से टेक्सी के होर्न की आवाज़ आयी।
"सूरज आ गये,जल्दि से तैयार होति हूँ ,आप भी तैयार हो जाये" कहते ही नंदिनी अपने कमरे कि तरफ़ दौडी
"तुम लोग तैयार नही हुये ,६ बज गये हे,दिल्ली का ट्रेफ़िक पता हे ना,लोधी कोलोनी पहुन्चते एक घन्टा लग जायेगा"सूरज भन्भनाते हुए बोले
"बस,अभी आयी"नन्दिनी ने आवाज़ दी॥
क्रमश...
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शनिवार, जुलाई 14, 2007
एक अलसायी सी दोपहर ......
कानो में कुछ मीठे बोल
आओ मिल जुल के बैठे
समय बड़ा ही है अनमोल
करे मनन्न आज हम तुम
इस अलसायी दोपहर को.....
जागती आँखों में बुनते
सपनो के ताने बाने को
चढ़ने दो परवान
इश्क़ है
मिलने दो ,अनजानो को.....
उलझा दो ख़ुद को सांसो मे
रोको ना उठते तूफ़ानो को
कल का पता किसे हे मौला ,
ये पल जी लेने दो परवानो को......
एक आल्साई सी दोपहर मे
भर दो रंग सतरंगी तुम
शाम की लाली फिर निखर के
आसमान में कोई एक
इंद्रधनुष उगा जाए......
उस शाम की सुबह भी शायद
कल जल्दी से आ जाए.......
शुक्रवार, जून 29, 2007
खुद को खुद से मिला कर तो देखों .....
प्यार की लौ जला के तो देखो
वातानाकूलित हवा से निकल कर
बसंती पवन का मज़ा ले के देखो
बत्तियों की चमचमाती रौशनी से बाहर
सूरज की किरणे सहला कर तो देखों
बहुत हो लिए परेशान औरो की खातिर
आज .....
खुद को खुद से मिला कर तो देखों
तो .......
उदासी तेरी उड़ जायेगी
तनहाई भी ना सतायेगी
बनेगा तू राजा
जहान् का वो पहला
जिसके मन मे होगा
विश्वास इतना
की
दुनिया की सब दौलत मिल जायेगी
जब खुद की खुद से ही बन जायेगी ........
बुधवार, मई 30, 2007
रिश्तों को रिसते देखा है हमने..
बरसों से संजोइ इक पौध दी
प्यार और विश्वास से सांवारी हुई
वक़्त की आँधियों से उसे
जद्द से उखाड़ाते
देखा है हमने...
एक चुप्प बरसी है आँगन में
सीली दीवारों से निकल कर
गरजते बादलो को बरसते
देखा है हमने .......
एक चोट लगी थी हल्की सी
मरहम की ज़रूरत भी ना थी
खरॉंचों को नासूर बन सड़ाते
देखा है हमने .......
दुनिया के काँधे पे सर रख
जब सिसकियाँ भरी हमदर्दी के लिए
अपने गमो पर ग़ैर आँखों को
जमकर हँसते
देखा है हमने .....
तेरे शहर से दिल भर गया है शॉना
तीरे कूचे गलियों को
धीरे से सरकते
देखा है हमने ......
रिश्तों को रिसते देखा है हमने॥
मंगलवार, मई 29, 2007
बहुत जल्दी में हूँ ........
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ
मॉरपंखी कलाम की स्याही
कहीं सूख ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ
व्यापक विचार समेटे खड़ा मन
साँझ के अंतिम छ्होर पर
लेख तार कोई टूट ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ
विचार विमर्श उत्पीड़न उलांगना
द्वंध प्रतिद्वंध आँचल में समेटे
ह्रदय गति कहीं रुक ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ ........
रविवार, मई 27, 2007
इन्द्रधनुश के उस पार्…एक कहानी
" नौ बजने को आये हे,ना जाने कहा रह गयी ये लडकी " पिछ्ले आधे घन्टे मे अन्गिनत बार दरवाज़ा खोल कर देख आयी थी पर सन्ध्या का कोई नामो निशान नही था
"अगर सन्ध्या के बाबा ुसके आने से पहले घर आ गये तो तूफ़ान आ जायेगा" धीरे से मुन्ह मे बुदबुादाते हुये राधिका रसोई की तरफ़ जैसे ही मुडी ,दरवाज़े पर घन्टी बजीदौड कर दरवाज़ा खोला ,बाहर सन्ध्या खडी थी॥
"कितनी देर लगा दी सन्ध्या,मेरी तो जान निकले जा रही थी,क्या हुआ,कहा रह गयी थी,दिन मे जब फोन किया था तूने तो पूरी बात नही बतायी"
"अन्दर चले मा,सारी बात यही पूछ लोगी क्या"सन्ध्या ने हल्के से मुस्कुराते हुए बोली
""अरे हा, अन्दर आ बेटा,मै बस यू ही परेशान हो रही थी,तूने शाम से कुछ खाया क्या"
सन्ध्या ने ना मे सर हिला दिया
"अछा,मैने पोहा बनाया हे,अभी लाती हु"बोलते हुए राधिका रसोइघर मे घुस गयी
"पोहा बहुत टेस्टी बना हे मा"प्लेट नीचे रखते हुए सन्ध्या बोली
"अब बता,कहा गयी थी"राधिका बहुत बेचैन थी
"तुम्हे याद हे मा,मैने फ़्लोरिडा यूनिवर्सिटी मे आर्ट और डिसाइन के कोर्स की स्कोलरशिप की अर्जी भरी थी"
"हा,याद हे,तुम्हारे बाबा से आज तक छुपा कर रखी हे ये बात हमने" राधिका बोली।
"क्या हुआ उसका'
"आज उनके यहा फ़ाइनल काल था"
"फिर"
सन्ध्या के चेहरे पर एक मुस्कान फेल गयी"मेरा सेलेक्शन हो गया हे मा" केहते हुए उसने मा को बाहो से जकड लिया"
"सच्………मे बहुत खुश हू" राधिका मुस्कुरायी ,पल भर मे उस्की मुस्कान चिन्ता की लकिरो मे बदल गयी
मा बेटी ने एक दूसरे का चेहरा देखा,दोनो के मन मे एक ही खयाल था"बाबा को कौन मनाएगा"
बाबा यानी बाबू विश्वास राव पाटिल्…1970 मे कोहलापुर से अपनी नयी दुल्हन को ले कर मुम्बई आये थे।किस्मत ने साथ दिया और उन्हे बी।एम्।सी मे अकौन्टन्ट की नौकरी मिल गयी थीथाने की एक चाव्ल मे दो बेडरूम की अपनी खोली बना ली थी इतने सालो मे।
उनकी पहली सन्तान लडकी थी……उ्न्होने नाम दिया पूर्निमा…दूज के चान्द सी उजली थी उनकी बेटी…"कोई बात नही बाउ,अगली बार बेटा होगा,पेहली कन्या लक्श्मी हे" आयि ने तस्सली दी
पर प्राराब्द्द तो तेह हे,बद्लेगा
दूसरी बार फिर उन्हे लड़की हई…अमाव्स्या सी काली…।भारी मन से उस्का नाम सन्ध्या रखा। सन्ध्या की डिलिवरी के वक़्त हुइ कोम्प्लिके्शन्स की वजह से डाकटर ने राधिका को फिर से मा ना बनने की सलाह दी
बेटा ना होने का दुख पाटिल बाबू को हमेशा नासूर की तरह चुबता रहाऔर उन्होने शायद राधिका को और अपनी बेटियो को इस बात के लिये कभी माफ़ नही किया
श्री पाटिल मानते थे कि लड्कियो की जगह चुल्हा चौका और घर ग्रेह्स्ती तक ही सीमित हे
पूर्निमाका विवाह उनहोने 19 साल की उम्र मे ही कर दिया था पर राधिका के ज़ोर देने पर सन्ध्या को उन्होने मिठीबाई कालेज मे आर्ट्स पड्ने की ईजाज़त दे दी थी पर इसी शर्त पर कि बी ए पास करते ही वो उसकी शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जायेन्गे
सन्ध्या की रुचि बचपन से ही कला मे थी…कागज़ पर आडी तिरछी रेखाए बनाकर उनमे रन्ग बरना उसका शौक था…राधिका को सन्ध्या के टेलेन्ट का आभास था और मन ही मन उसके साथ थी पर अपने पति से डरती थी
सन्ध्या की सहेली म्रिनाल को सन्ध्या के अध्बुत टेलेन्ट का अहसास था और उसने ही फ़्लोरिडा यूनिवर्सिटी के पूरी फोर्मलिटिस को पूरा करने मे मदद की थी और सारी फ़ाइनेस का इन्तेज़ाम किया था
पर अब बाबा को मनाये कौन और कैसे?
""ट्रिन ट्रिन" दरवाज़े की घन्टी बजी…
उदेड बुन से बाहर निकल कर राधिका ने दरवाज़ा खोला
"इतनी देर लगा दी दरवाज़ा खोलने मे,कब से घन्टी बजा रहा हु,कहा थी …।" दरवाज़े मे घुसते हुए झनझनाते हुए श्री पाटिल बोले
"जी,वो रसोइ मे……॥"इतना ही बोल पायी राधिका
"ठीक हे,ठीक हे भोजन पारोसा,महारा माथा मगज्री ना करा" अपनी टोपी दीवार पर टन्गी कील पर टिकाते हुए बोले
सन्ध्या ने राधिका की तरफ़ देखा और मौन मे दोनो ने अग्री किया कि आज की रात स्चोलर्शिप की बात करने के लिये ठीक नही हे
और जो अगले दिन हुआ उसने पाटिल बाबू की सोच बदल दी
"ट्रिन ट्रिन" दरवाज़े की घन्टी बजी…
राधिका आन्खे मलते हुए उठी घडी मे छ्ह बज रहे थे।"इतनी सुबह सुबह कौन हो सकता हे "
दरवाज़ा खोला तो सामने पूर्निमा खडी थी और साथ मे उसका 4 साल का बेटा ऊत्कल था
"पूनी " राधिका ने घबरा के बोला
"आई" पूर्निमा बिलखती हुइ राधिका से लिपट गयी
"क्या हुआ बेटा ,और ये सामान्… अचानक राधिका की नज़र दरवाज़े पर पडे सूट्केस पर पडी
"सन्कल्प मुझे हमेशा के लिये यहा छोड गये हे…।'पूर्निमा की सुबकिया सुन कर श्री पाटिल और राधिका भी बाहर आ गये
पूरी बात जान कर श्री पाटिल ने अपना सर पकड लिया।उन्हे एह्सास था कि उनका दामाद उनकी बेटी से बद सलूकी से पेश आता था,पर बात यहा तक पहुच जायेगी उन्होने सोचा ना था
"बाबा,वो बोले कि तुम फ़ूहड हो, तुम्हारे मा बाबा ने अन्पड भैन्स मेरे गले बान्ध दी हे,बताओ बाबा इसमे मेरा क्या कुसूर्……"
पाटिल बाबू ने सहमे से खडे ऊत्कल को गले लगा लिया
कुछ दिन बीत गये,अपने दामाद से मिल कर बात करने की कोशिश भी की पर कोइ फ़ायदा नही हुआ…पूर्निमा ने भी अपनी नियती से जैसे समझोता कर लिया
"मा, आज जवाब देने का आखिरी दिन हे"सन्ध्या
पूर्निमा के साथ हुए वाकयात की वजह से राधिका ये भूल ही गयी थी
"ह्म्म …आज देखते हे बेटा"
शाम को जब बाबा घर आये,सन्ध्या चाय का प्याला लेकर उनके सामने जा बैठी
"चाय बाबा'
"हा बेटी,आज बहुत थक गया हू मे"
"बाबा,वो आपसे कुछ बात करनी थी"
"हा, बोल"
डरते डरते सन्ध्या ने स्चोलर्शिप की सारी बात कह दी
"अमेरिका…।" खडे होते हुए गस्से से पाटिल बाबू बोले
"तुने सोचा भी कैसे…।'
"और तुम, तू जानती थी इस सब के बारे मे…लड्की को बाहर भेजेगी" राधिका की तरफ़ बड्ते हुए तमतमाते हुए वे बोले
"हा,मे उसके साथ हू" ना जाने कहा से हिम्मत आ गयी थी राधिका मे, वो अपने पति का सामना करने को खडी हो गयी
और बाबा,आप चाहते हे कि सन्ध्या का हाल भी मेरी तरह हो…।ज़माना बहुत आगे निकल गया है बाबा, बस आप पीछे रह गये "पूर्निमा बोली
"बाबा,मुझे अपनी ज़िन्दगी जीने का मौका दीजिये,मे आपका बेटा बन कर आपका नाम रोशन करना चाह्ती हु"हाथ जोड कर भीगी पल्को से सन्ध्या ने आखिरी विनती की
हवाइजहाज़ की खिड्की से बाहर देखते हुए सन्ध्या का मन छलान्गे मार रहा था …अपनी मन्ज़िल कि ओर बड्ने को…।
पूर्निमा वापस अपने घर चली गयी थी और फ़ेशन डिसाइन का कोर्स शुरु किया था
बाबा ने इजाज़त दे दी थी उसे पन्ख फैला कर उडने की
अपने बाबा का आशिर्वाद और मा का प्यार लिये वो अपने सन्जोने चली थी वो…इन्द्रधनुश के उस पार्…॥
मेरे प्रिय
देख तुम्हे अनदेखा कर दे
ना देखे तो व्याकुल होये......
इन् मदमाते अधरो का
भेद ना जाने कोई
संग तुम हो तो मौन रहे
तुम जाओ तो तेरा नाम जप लोय.....
इन् बैरन कदमो का
राज़ ना जाने कोई
साथ तुम्हारे ना चले,
तुम जाओ तो पीछे होये.....
मन मे बसे तुम सान्वरे
तुम क्यू ये ना समझे
ना मेरी मे हां हे छुपी
क्या तुम समझे
हा, तुम अब समझे…
और अब, मे पूर्ण तेरी हुई प्रिय
गुरुवार, मई 24, 2007
बस एक कदम.....
ज़िन्दगी के हर मोड पर
प्रारब्ध की मिलती हस्ती हे
बस एक कदम बढाने
की ज़रूरत हे क्यूंकि
हर कदम पर जिन्दगी बहती हे ....
बंद कमरो में घुटी साँसे हे
बंद खिड़की खोल कर हवा को
बहने दो
एक हाथ बढाने पर
हवाएँ रुख बदलती हे .....
किसी का दर्द बाँचो
कुछ अपनी कहो
मन खोलो,कुछ बोलो
एक मौन की चुप के पार
कोई एक ज़िंदगी उबरती हे.....
रविवार, मई 20, 2007
सलवटे.....
लगा कल रात सपने में था तू आया
तेरी उँगलियों की थर्कन बदन पर मिली
पलट के देखा तो बिस्तर पर
सलवटे थी पडी ......
लगा कल रात तू यही था यही
मेरी सान्सो में तेरी खुश्बू थी बसी
ख्वाब था शायद या था हक़ीक़त
तू यही था मेरे करीब ...
बहुत ही करीब.....
निर्वान मार्ग
आस्मान मे सितारो कि भीड़
राशन के लिये कतारे और भीड
कहा है शान्ति का मार्ग…
बाज़ारो मे सामानो कि भीड
कब्रीस्तान में मज़ारो कि भीड
हस्पताल मे बीमारो कि भीड
कहां है निर्वान का द्वार …
मन्दिर मे भक्तो कि भीड़
सीणेमा मे आसक्तो कि भीड़
पहाडों पर सैलानियो की भीड
कहां है मुक्ति का मार्ग्……
घर पर मेहमानो कि भीड़
मन मे सवालो कि भीड
समाज मे रुडिवादियो कि भीड
कहा है ग्यान का मार्ग्…॥
इस भीड़भाड़ से निकल के
एक कोने मे छुपे बेअदब
बेलगाम बचपन को
अमर करने का
मार्ग दिखा दे
ए मौला……
इसके पाक मन के सहारे
मैंऔर करु मोक्श कि प्रप्ति
तब जीवन से तर जाऊं .....
मंगलवार, मई 15, 2007
मंज़िल मंज़िल......एक कहानी
" जी" सकपका कर मैंने सीट पर फैला अपना समान समेटा और वो बैठ गए
" शताब्दी का इंतज़ार कर रही हो बेटी ? "........
" जी " जवाब देकर मैंने अपना ध्यान प्रेमचंद की "सेवासदन" की तरफ़ फिर से करना चाहा .
"क्या दिल्ली जा रही हो बेटी ? वो फिर बोले ।
बचपन में माँ ने सिखाया था" अजनबियों से बात नही करते " अधेढ़ उम्र हो गयी और दो बच्चो कि मा हूँ पर बरसो पहले की इस सीख ने कितने अनजाने रिश्तों को बनने से पहले ख़त्म दिया था ....पर ना जाने कैसी आत्मीयता और स्नेह था उनकी आवाज़ में, कि मैं अनायास ही बोल पड़ी " जी, मेरा मायक़ा हे मेरा वहाँ "।
" सामान बहुत हे बेटी, लंबे समय के लिए जा रही हो ?", "जी' कहते मेरा गला भर आया ."अध्यापिका हूँ पहले यहीं अलीगंज में पढ़ाती थी, अब दिल्ली तबादले की अर्ज़ी दी है "
"और तुम्हारा परिवार..पति ,बच्चे ......?"
मेरी चुप्पी शायद बहुत कुछ कह गयी थी....जो लब ना कह सके,भीगी पलकों ने बयान कर दिया ...
कुछ देर की मौन के बाद वो मेरी तरफ़ मुड कर बोले "मेरे दो बेटे है ,बेटी...दोनो ख़ुश है अपने परिवारों के साथ ..........एक डॉक्टर है कनाडा में और दूसरा एंजिनीर, नेवार्क में ..कभी, कभी जाता हूँ उनसे मिलने...पर यहाँ से दूर नही रहा जाता...अपने वतन की ख़ुश्बू और इसमे दफ़न हुई यादें वापस खींच लाती है ....
"मेरी बहन है दिल्ली में...गर्मियों की छुट्टियों में उनके पास चला जाता हूँ ,वहाँ उसके पोते- पोती हे ,दिल लगा रहता है उनके साथ ... "
" और आपकी पत्नी...." अनायास मेरे मुँह से निकल गया.
बहुत देर शांत रहे और फिर बोले " बहुत साल पहले, मेरी पत्नी और मेरे बीच हुए एक झगड़े की वहज़ह से वो अपने मायक़े चली गयी ...... उसे लगता था की शायद मेरे पास उसके लिए वक़्त नही था, शायद मैं कभी उसे बता नही पाया वो मेरे लिए क्या मायने रखती है .........मैने ग़ुस्से में उसे घर छोड़ने के लिए कहा, और वो छोड़ गयी ........... बच्चे मेरे पास थे...कुछ दिन बीत गये और एक दिन ये ख़बर आई की कानपुर से लखनऊ आते वक़्त एक सड़क दुर्घटना में वो गंभीर रूप से घायल हो गयी थी ......."
मैने देखा कि उनकी आँखें नम थी ... आँखों से चश्मा उतार कर साफ़ करते हुए वो आगे बोले " मैं जब तक हस्पताल पहुँचा, वो अपनी अंतिम साँसें ले रही थी .....बस जाते जाते एक मुझे एक चिट्ठी थमा गयी जो शायद रैलवे प्लएटफ़ॉर्म पर बैठ कर मुझे लिखी थी " .......
"क्या था उस चिट्ठी में" मेरे गले से धीमी सी आवाज़ निकली।
एक पुराना काग़ज़ ,जिसने वक़्त की मार देती थी , मेरी तरफ़ बड़ा दिया... उसमे लिखा था,
"प्रिय पतिदेव,
कभी- कभी हम सुई को हाथी और हाथी को सुई समझ लेते है .....अगर छोटी छोटी बातों को भुला कर हम एक दूसरे कई भावनाओ का सम्मान करें , तो जीवन कितना सुखमय हो...
मैं कभी तुम्हे ये ना कह सकी जो आज लिख रही हूँ ---------
काश आप मुझे कभी बोल सकते की आप मुझे कितना चाहते है ......मैं दुनिया के सारे कष्ट सह सकती हूँ पर आपकी रुसवाई और बेरूख़ी मेरे सम्मान को मंज़ूर नही ...आज आपने मुझे घर छोड़ने के लिए कहा, मैं घर से निकल गयी ..... काश, अपने एक बार मुझे रुकने के लिए कहा होता.... जो बात आप आज नही समझे, मेरे जाने के बात समझेंगे"...
आपकी, सिर्फ़ आपकी,
"उर्मी"......
काग़ज़ को वापस जेब में डालते हुए वो बोले "इससे मैं हमेशा अपने पास रखता हूँ और अब मेरेएकाकी जीवन का यही सहारा है ..... उर्मिला की बात तो मैं समझा , जब तक समझा वो चली गयी थी,अकेले......"
बहुत सन्नाटा सा छा गया था हुमरे आस पास तभी दूर से आती हुई ट्रैन की सीटी से हुमारा ध्यान भंग हुआ
डब्बा जैसे लगा ,बुज़ुर्गवार के कूलीए ने उनका समान गाड़ी में डालना शुरू किया. " आ रही हो बेटी?" उन्होने पूछा। "
"nahi बाबा, मैं घर जाऊंगी" मैं बोली...
उनके चहरे पर हलकी सी मुस्कान फैल गयी ....
फिर मिलेंगे बेटी....मेरी मंज़िल तो यही ही है"........ चलती गाड़ी से हाथ हिलते हुए उन्होने मुझसे अलविदा ली और मैंने घर जाने के लिए कुली को आवाज़ दी. हाथ में मोड़ा हुआ काग़ज़ मैने किताब के पन्नो में सहेज दिया......
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शाम को दरवाज़े की डोर बेल की आवाज़ पर दरवाज़ा खोला तो सामने बहुत थके हुए सुधीर दिकाई दिए आँखें लाल थी, लग रहा था की रोए थे शायद...
" सुधा, तुम ....." उनका गला भर आया और उन्होने जकड़ कर मुझे अपने आंलिनगान में ले लिया "मुझे लगा था शायद.........."
"शह्ह, ......मैने उनके होंठों पर उंगली रख उनके काँधे से सर लगा कर रो पड़ी...
बाहर सूरज ढल रहा था, अंधेरो का अब डर नही था मुझे ,मेरी मंज़िल जो अब मेरे साथ थी...दोबारा.... " धन्यवाद बाबा" ...मैने धीरे से मन बोला.......
रविवार, मई 13, 2007
कशमकश .....
कभी ख्वाब दिखती , कभी रवानगी
दौड़ता रहा पीछे जिसके तू दिन भर
तेरी परछाई थी , साथ चली तेरे दिलबर
अब हुई शाम और तू मुड़ा है अब
कहाँ है वो.......
वो घुल गयी साँझ की किरणो के साथ
शाम ढले आने वाली शब बन कर
'शेष कल' ....
बुधवार, अप्रैल 11, 2007
चौबे जी के खर्राटे.....
चार दीवारी से झन्नाटे,
बज जाते फिर
धीरे से रुक रुक जाते
बरसो बीत गये है फिर भी
जब-तब आ कानो से है टकराते
चौबेजी के ख़रखराते... ख़र्राटे
बात है उन दीनो की हुई
जब गर्मियों की छुट्टी
बुआ मामी संग आ पहुँची
ले छुनु मुन्नू बन्नू की टोली
जून में थी बनी दीवाली
चँदाल चौकड़ी जमी थी भाई
खुराफ़ति दिमIगो ने मिल के
एक तरकीब बनाई ....
पहुँचे बाग़ में मिल सारे
अब वन माली की शामत आई....
दरख़्त लदे थे आमो से
तोड़े आम दे पत्थर दे
चँदाल चौकड़ी ने जो तबाही मचाई
लो भैया, अब टोली की ही शामत आई....
नाक में दम जब भर गया
सभी बदो ने ये तेह किया
नही सोयेंगे सब बच्चे संग
यहाँ वहाँ की जगह तेह हो ली .....
छन्नु मुन्नू का बिस्तर था
चौबेजी से सटा हुआ
रात आते आते ही
दोनो की शामत आई...
चौबेजी की उम्र थी सत्तर
घर के बड़े थे ,रौब था सब पर
सोते थे चादर तान कर
लेकर ख़र्रटे मन भर, गज भर....
जैसे जैसे रात बड़ी
ख़र्राटे की रफ़्तार बड़ी
कानो में ठूँसी थी रुई पर
उससे भी ना बात बनी
कभी इधर पलट, कभी उधर
नींद नही आने को थी
चुननु ने मुन्नू से सलाह कर
धीरे से पास में जा कर
चौबेजी की नाक में दी तीली.....
घबरा के उठे चौबेजी
देख शैतानो को थ्योरियाँ छड़ी
लो जी वो तूफ़ान उठा घर में
अब तक याद है वो रात बड़ी
मुर्गा बनके दिन भर
कैसे निकाली थी तौबा -तौबा
चुननु मुन्नू ने छुट्टी गर्मियों की ....
चौबेजी चले गये स्वर्ग को
बच्चे भी हो गये है बड़े
पर गूजते है उस कमरे में अब भी
चौबेजी के ख़र्राटे.......
सोमवार, अप्रैल 09, 2007
शाही जनाब...
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क्या करिए अजी हम तो ऐसे हैं
मन चाहे वहाँ पीक फेंके हैं
सड़क को कूड़े -दान समझे हैं
क्या करिये अजी हम ऐसे हैं...
नही कतारें लिए हमारी
धक्का दे के सफ़र करते हें
क्या करिये अजी हम तो ऐसे हें...
देख बुजर्गो ,नारियों को
आंखें हम बंद करते हेँ
सुख चेन हमारा पहले आये
यारो हम तो सफ़र करते हें,
क्या करिये अजी हम तो ऐसे हें ...
दरिया दिल फैला कर हम रखते हें
गलत पता का भी पता देते हें
क्या करिये अजी हम ऐसे हें...
हलके कागज़ के उपर से
भारी फ़ाइल चला देते हें
चाय पानी बिना कभी भी
कलम उठाकर नही रखते हें
क्या करिये अजी हम ऐसे हें...
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किसी के हृदय और सम्मान को ठेस पहुचने का इरादा नही हे ...
ग़र बुरा लगे तो क्षमा करिएँ,
ऐसे ही हे हम ...
जो देखते हैं ......सच लिखते हैं...
क्या करिये अजी हम......ऐसे हैं.....
जेओमेट्री
धुरी पर गूमती धरती
आ जाती है वापिस धुरी पर .......
सूरज गोल है ,चन्दा भी गोल है
फिर आ जाते है वहीं पर ही
सफ़र शुरू किया था जहाँ पर
दिन रात का मिल कर कभी.....
समय का चक्र चलता रहता हे
गोल हैं शायद इसलिए ये
सब ही .....
गर...
धरती गोल है तो मकान चौकौर क्यूं
ग़र....
दुनिया गोल है क़ब्र चौकौर क्यूं
इसलिए शायद ......
आदमी दुनिया में कहीं भी जाए आख़िर
वापिस आता है घर ही अपनी चार दीवारी में,
अपने दायरे के भीतर.....
छुप के जग से कहीं भी
चला जाए
आखिर आदमी जाता तो वही ही
छे ग़ज़ ज़मीन के नीचे
कब्रीस्तान की चार दीवारी में
क़ब्र के चार कोनुओ में सिमटकर
रहने को सदा वहीं ......
शुक्रवार, अप्रैल 06, 2007
यादें तेरी...
वो दबे पाँव आकर पास बैठ जाना
वो हौले से कानो में मेरे गुनगुनाना
"कोई दूर से आवाज़ दे तो चले आना"....
मैं शायर , अल्हड नादाँ
समझा नही दिल की जुबां
तेरी चुप्पी में एक बात छुपी थी
रहा मैं उस से कैसे अनजान ....
आंखों से जों बात कहीँ थी
पलकें खुली , कभी झुकी सी
सोचा आज तो लगा यही
क्यों में नैनो की मौन व्यथा
समझा नही.....
यादें तेरी...
दिल में हल्की सी आज
कसक दे गयी
जब एक पुरानी किताब से अचानक ,
तेरी शादी की तस्वीर गिर पड़ी...
तभी कानों में एक आवाज़ पड़ी
"कोई दूर से आवाज़ दे चले आना........."
नव युवती..ये कौन...
यौवन पर इतराती
बलखाती ,शर्माती
बिजली सी दौडी आती
देखो, देखो उस मोड़ से
आती यवनी ये कौन....
आने से इसके बाजे है
घंटियाँ मन उपवन में
इसके रोशन चहरे को देख
आंखें मद माय जीवन में
कितनों को ये पार लगाती
कितनों को ये राह दिखाती
इठलाती चलती बलखाती
ये यवनी है कौन....
अबला नही सबल है यारों
समय की बड़ी अटल हे यारों
आ के इसकी आगोश में यारों
खो जाते जाने कितने मन ....
समय का महत्त्व समझाती
लहराती चलती मदमाती
ये यवनी हे कौन....
जब से मिला हे इसका साथ
मैं भी रंग गयी इसके हाथ
सीखा है इस नव बाला से
समय बध्द्ता ,आत्मविश्वास
भूजो भूजो ये है कौन....
श्रीधरन की राज दुलारी
ये है जीं मेट्रो मेरी प्यारी
दिल्ली की है यही तो शान
मेट्रो,हर दिल का अरमान ......
गुरुवार, अप्रैल 05, 2007
सुबह सवेरे की पवन बेला में....
भीनी ख़ुशबू का था अहसास
साथ होकर भी जाने क्यूं
ना था बावरा मन मेरे पास
क़दमों पे पर थे लगे ऐसे
हवा में नाचते हो वो जैसे
आसमान लगता था रंगीन
आँखों पे चश्मा गुलाबी हो पहना
आया ख़याल दिल में फिर यही
लगती है दुनिया इतनी हसीं तभी
जब दिल हो खिला हुआ
लागे रोशन हर चेहरा
मन अच्छा है
तो दिखता है
कीचड़ नही कमल सदा
देखा था मैने आज सुबह...
मस्जिद की मीनारो के
ऊपर मंडरते पंछियों को
कब्रिस्तान से गुज़रते
पेड़ों के कारवाँ को
उसको भी देखा था मैने
सुबह सवेरे उठते हुए
जिसके आने पे रोशन हो
सुबह सवेरे शाम मेरे
देख के कुदरत के नेक करिश्मे
निकला ये मेरे दिल से
इतनी सुंदर सुगढ़ रचना से
सुबुह सवेरे मन क्यूं ना खिले
सुबाह सवेरे की पावन बेला में
कोटी कोटी उसको प्रणाम
जग का रचियता दाता है जों
उस अद्भुत जोगी को प्रणाम
रविवार, मार्च 18, 2007
तुम थी बस....
मुझे कहा करती थी "प्यारी परी मेरी "
बिखरी ज़ुल्फ़ॉ में उंगली फिराते हुए
रंगीन चश्मे से दिखाई थी दुनिया
ग़म और ग़रीबी मुझसे छुपाते हुए
तुम थी बस....
तन्हा थी मैं साथी छोड़ गया था मेरा साथ
कोई नही था बस तुम थी ,तुम मेरे पास
याद है तुमको. थामे रखा था कैसे तुमने
कस के अपने हाथो में देर तक मेरा हाथ....
तुमने संभाला ....
सबने बिखराया था मुझे पर तुमने
समेटा फूलों की तरह निस्वार्थ
दिया प्यार मुझे इतना ज़्यादा
गहरे सागर का जल जैसे अथात
तुमने....
मिटा दिया अपना अस्तित्व,
अपनी हस्ती मुझे बचाते हुए
ख़त्म किया अपना हर जज़्बात
सीने से मेरा ग़म लगाते हुए...
तुम्हे पता है........
मेरी रूह बस्ती है तुझमे माँ
कर सकती तुझे ख़ुद से जुदा नही
मुझे छोड़ के ना जाना कभी क्योंकी
तेरे बिना जीना मैने कभी सीखा नही....
तुमने देखा है अपना अक्स मुझ में हमेशा
और
मैं भी... तेरी रूह का एक हिस्सा हो गयी हूँ
जुदा हुई जो तुमसे कभी तो फ़ना हो जाऊंगी....
गुरुवार, मार्च 15, 2007
तुम कहाँ गये ??
उसके आँगन में अपनी खुशबू
आज फिर जब लौटे हैं मिले
बस काँटे तितर बितर....
कहती है माँ देखा करती थी वो
रस्ता मेरा चारों पहर
सोती थी मायूस सी होकर
चिट्ठी मेरी जो मिली नही अगर..
लौट के आया था लेकर
फूल सत्ररंगी उसके लिए
सोचा था ख़ुश होगी वो
भुला देगी देर हो गयी गर...
बोला मुझको गाँव का बूड़ा
देखा जिसने था मेरा बचपन
मेरी यादों की परछाई से
बाहर कभी वो निकली नही....
ना ये पता था मुझको ए दिल
मिट्टी में थी वो मिली हुई...
कहते हैं अख़िरी बार पुकारा था
जब उसने मेरा नाम लबों से
आसमान भी बरस पड़ा था..
आसमान था बस था ना मैं गर...
कल कुछ फूल उसकी क़ब्र
पे रख के लौटा हूँ
साथ में अपनी मय्यत का
सामान भी लेकर लौटा हूँ
दूर गगन से मुझको पुकारता है कोई....
शनिवार, मार्च 03, 2007
तुमने तो देखा होगा....
पत्थर की कंपन से जन्मे भंवर को देखा होगा...
मेरा अक्स उस भंवर में अनजाने फंस गया था
कुछ छटपाटाकर उसे ऊबरते तो देखा होगा....
थी ज़िंदगी थमी सेहएर-रेगिस्तान जैसी
अमवास को उठते रेत के भंवर को देखा होगा ...
विचलित मन में हैं सवालात कई हज़ार
जवाबों को सवालों से डरते तो देखा होगा ....
मन बावरा किस भंवर में जा फँसा था
चुप चाप ख़ुद से लड़ कर सम्बहलते तो देखा होगा....
कहीं खो गया था शायद मेरा वजूद इस भीड़ में
भीड़ से निकल मुझ से मिलते तो देखा होगा .....
मेरी गुड़िया....
सावालातों के दायरे अब बढ़ने लगे हैं
सालों से मेरे जवाबों का पीछा करते करते...
पूछती है माँ तुम जल्दी घर क्यूं नही आती
क्या सारे दिन दफ़्तर में मेरी याद नही सताती ...
क्यूं करती हो तुम ग़ुस्सा मेरी नादानियों पे
जानती नही तुम भगवान होते हैं बच्चे ......
देखूं गर टीवी तो आँखों पे हो असर
कया आँखें आपकी है बनी कुछ अलग सी ....
चाँद आसमान में दिखता है कहना वो साथी है मेरा या
फिर वो है मामा .....
हर जवाब पर नया सवाल करने लगी है
लगाता है नन्ही गुड़िया मेरी बढ़ने लगी सी है....
कुछ ही सालों में....
जिन्दगी की अजब पहेलियों में उलझने लगी है
मासूमियात ने अब अलहद- पने ने जगह ली है...
जो चाँद तारे साथी थे उसके बचपन के
उस चाँद को देख रात आह वो भरने लगी है...
रखती ना थी क़दम जो बिना थामे मेरा दामन
आपने आँचल में शर्मा के वो सिमटने लगी सी है
थी गुड़िया मेरे घर आँगन की वो जो कल तक
दुल्हन बन सज़ संवर आज वो सजने लगी है
दरवाज़े पे आ के बारात उसकी जब खड़ी हुई
अहसास तब हुआ,गुड़िया मेरी अब हो गयी बड़ी
फूलों से अब उसकी डोली सजने लगी सी है
मेरे नन्ही कली फूल अब बन ने लगी है
शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007
कुछ मेरी तरह ही...
मेरी तरह ही...
कुछ मेरी तरह
ज़िंदगी की दौड़ में
तुमने बहुत फ़ासले ,
ताए किए होंगे
कुछ मेरी तरह
तुमने कल के साए
आज के अंधेरोन में,
दफ़ना दिए होंगे
कुछ मेरी तरह
धूँढ में लिपटा मेरा अक्स
मन के आईने में
अब तुम्हे दिखता नही होगा
कुछ मेरी तरह ही
हुमारी दोस्ती की किताब पे बूना
मकड़ी का जाला बढ़ गया होगा
और
मेरी तरह ही तुमने पलट कर कभी
उस दर को नही देखा होगा
जो गली के कोने में उदास, अकेला खड़ा है
टूटी ज़ख़्मी उसकी दीवारें
आज भी तुम्हारे बचपन की किलकारियाँ
अपने आगोश में समेटे खड़ी हैं
याद है
अँगन में उस घर के हुमारी
दोस्ती की नींव पे एक पौध उगी थी
आज वहाँ बर्गाड़ का
एक सूखा सा ठूँथ खड़ा है