गुरुवार, सितंबर 06, 2007

कांच के रिश्ते

कुछ कच्चे घरोंदो को
जब शक्ल देनी चाही
तो हाथ खुद ब खुद ही
मिटटी में सन् गए हैं

कोशिश हमारी ये थी
की हो जाये चराग रोशन
दिया बाती की जलती लौ ने
दमन फकत किये हैं

दूजे के कांधे
को हम
दीवार
तो हे समझे
पर औरों की क्या परवा
उनको पडे ज़रूरत
तो आँचल में अपने छुप कर
आगे निकल रहे हैं

हमने तो सिर्फ था चाहा
एक नेक काम करना
शर्मिंदगी से हम ही
खुद मे सिमट रहे हैं

हे कांच के सब रिश्ते
पल भर में चिट्कते हे

ऐसी फकत ही दुनिया
ऐसे फकत हे नाते
क्या कहे क्या सुने हम
सम् मौन अब रखते हैं

6 टिप्‍पणियां:

  1. "हे कांच के सब रिश्ते
    पल भर में चिट्कते हे"

    यही सच है

    जवाब देंहटाएं
  2. ऐसी फकत ही दुनिया
    ऐसे फकत हे नाते
    क्या कहे क्या सुने हम
    सम् मौन अब रखते हैं
    --

    यही बेहतर है. अच्छे भाव.

    जवाब देंहटाएं
  3. रिश्ते टुट्ते नही , सिर्फ़ बदलते है,
    साथ छुटने पर , है ये कैसा गम तुम्हे??
    ताउम्र अकेले ही तो हम चलते हैं

    :)

    जवाब देंहटाएं