शनिवार, मार्च 03, 2007

मेरी गुड़िया....

उसके
सावालातों के दायरे अब बढ़ने लगे हैं
सालों से मेरे जवाबों का पीछा करते करते...

पूछती है माँ तुम जल्दी घर क्यूं नही आती
क्या सारे दिन दफ़्तर में मेरी याद नही सताती ...

क्यूं करती हो तुम ग़ुस्सा मेरी नादानियों पे
जानती नही तुम भगवान होते हैं बच्चे ......

देखूं गर टीवी तो आँखों पे हो असर
कया आँखें आपकी है बनी कुछ अलग सी ....
चाँद आसमान में दिखता है कहना वो साथी है मेरा या
फिर वो है मामा .....

हर जवाब पर नया सवाल करने लगी है
लगाता है नन्ही गुड़िया मेरी बढ़ने लगी सी है....

कुछ ही सालों में....
जिन्दगी की अजब पहेलियों में उलझने लगी है
मासूमियात ने अब अलहद- पने ने जगह ली है...

जो चाँद तारे साथी थे उसके बचपन के
उस चाँद को देख रात आह वो भरने लगी है...
रखती ना थी क़दम जो बिना थामे मेरा दामन
आपने आँचल में शर्मा के वो सिमटने लगी सी है
थी गुड़िया मेरे घर आँगन की वो जो कल तक
दुल्हन बन सज़ संवर आज वो सजने लगी है
दरवाज़े पे आ के बारात उसकी जब खड़ी हुई
अहसास तब हुआ,गुड़िया मेरी अब हो गयी बड़ी
फूलों से अब उसकी डोली सजने लगी सी है
मेरे नन्ही कली फूल अब बन ने लगी है

2 टिप्‍पणियां:

  1. great di...apke kalam se likhe lafzon ne bataya ek aap hamari di hai...hahahahahahaha.tabhi main sochoon ye sania kaun hai jo mere blog mein aake comment deke chali gayi....

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  2. pefect hai bilkul!!

    yunhi hota hai na Di-bachpan ke sawal kitne masoom se aur phir wahi sawal zindagi ke ajeeb se pannon ke roop mein aa jate hain....

    aur aapne likha bhi itna achha hai bilkul umr ke do padao bilkul saamne dikhne lagte hain...

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