शनिवार, सितंबर 22, 2007

नया जहाँ

आओ एक नया जहाँ बसाए
इक दूजे में हम समां जाये

अब दुनिया से मन भर गया हे

कुछ सपनो की दीवारे बनाए
हसीं खयालों से उन्हें सजाए

ईंट पत्थर से ना हो वास्ता

आओ कुछ मिटटी गारा ले आये
कुछ तुमसा कुछ मुझसा बनाए

अब खिलोने से दिल भर गया

आओ कहीँ दूर निकल जाये
शांति और अमन को अपनाए

ख़ून खराबे से हो किसका भला

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपके सपनों का नया संसार अवश्य बनेगा। बड़ी भावपूर्ण रचनाएँ हैं आपकी। दिलो-दिमाग को झिंझोड़नेवाली। प्रेरक, उत्प्रेरक।

    जवाब देंहटाएं
  2. गायत्री जी,तीसरी त्रिवेणी विशेषकर अतयंत मर्मस्परस्पर्शी है। एक-दो सुझाव है, रचना के प्रवाह को ध्यान में रखते हुए। ठीक लगें तो अपनायें:

    1. दूसरी त्रिवेनी की अंतिम पंक्ति अगर यूँ हो तो:
    ईंट-गारे के मकानों में दम घुट गया है।

    2. अंतिम त्रिवेणी की अंतिम 2 पंक्तियां:
    शांति और अमन का दिया जलायें
    ख़ून-ख़राबे से मन बुझ गया है।

    उत्तम रचना के लिये बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. बढ़ियां रही त्रिवेणियों की धार. बधाई. जारी रखें.

    जवाब देंहटाएं
  4. @हरीराम जी, शेखर जी,लाल साहब :

    आपके सुझावों और सराहना का शुक्रिया. गुलज़ार साहब की इस अदभुत विधा की एक छात्रा हूँ, अच्छी त्रिवेणी बनाने का प्रयास जारी रहेगा.

    जवाब देंहटाएं