सोमवार, अप्रैल 09, 2007

शाही जनाब...

सड़क पर,बसो में,बाजारो में, कूचो में, गलियारों में, दफ़्तरों में मिलने वाले आम शहरी नागरिक का वर्णन हे ये :
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क्या
करिए अजी हम तो ऐसे हैं

मन चाहे वहाँ पीक फेंके हैं
सड़क को कूड़े -दान समझे हैं

क्या करिये अजी हम ऐसे हैं...

नही कतारें लिए हमारी
धक्का दे के सफ़र करते हें

क्या करिये अजी हम तो ऐसे हें...

देख बुजर्गो ,नारियों को
आंखें हम बंद करते हेँ
सुख चेन हमारा पहले आये
यारो हम तो सफ़र करते हें,

क्या करिये अजी हम तो ऐसे हें ...

दरिया दिल फैला कर हम रखते हें
गलत पता का भी पता देते हें

क्या करिये अजी हम ऐसे हें...

हलके कागज़ के उपर से
भारी फ़ाइल चला देते हें
चाय पानी बिना कभी भी
कलम उठाकर नही रखते हें

क्या करिये अजी हम ऐसे हें...

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किसी के हृदय और सम्मान को ठेस पहुचने का इरादा नही हे ...
ग़र बुरा लगे तो क्षमा करिएँ,
ऐसे ही हे हम ...
जो देखते हैं ......सच लिखते हैं...
क्या करिये अजी हम......ऐसे हैं.....

7 टिप्‍पणियां:

  1. The poem is wonderful. It has a laughable sarcasm which apart from its entertainment value, asks honest questions about who we are as citizens of a nation that has always prided itself as one of most wise and sober South-East nations.

    I have made a few changes, added a few things here and there and am re-producing the modified version below. If you like, you can adopt the revised version. Here it goes:

    क्या करें:
    अजी हम तो ऐसे ही हैं।

    कैसे?

    सुबह-सवेरे नहा धो कर,
    जोत-अगरबत्ती जला कर
    घर से निकलते हैं
    मन तो मन्दिर और सड़क को:
    कूड़ेदान समझते हैं।

    क्या करें हम तो ऐसे ही हैं।

    सरकारी कार्यालयों में:
    फ़ाइल पास होने के लिये,
    कोर्ट-कचहरियों में:
    न्याय होने के लिये;
    बरसों राह देखते हैं
    शायद तभी बसों में:
    धक्का दे कर सफ़र
    और कतारों को तोड़ कर:
    बिजली के बिल भरते हैं

    क्या करें हम तो ऐसे ही हैं।

    ग्रह-शांति के लिये करते हैं:
    बज़ुर्ग आश्रमों में दान
    और कथा-कहानियों, चलचित्रों में:
    नारी को देते हैं सम्मान,
    क्या इसिलिये नारियों और बज़ुर्गों के लिये
    आरक्षित सीटों पर बैठ;
    आराम से आँखें मूँद लेते हैं?

    क्या हम ऐसे ही हैं?

    भटके हुए राही को,
    विशेषकर जब वह नारी हो,
    हम घर तक पहुँचा आते हैं
    और कभी-कभी ग़लत पते का भी
    पता बता जाते हैं

    वाह जनाब, हम ऐसे भी हैं।

    बिना चालन-परीक्षा और फ़ोटो के:
    वाहनों के लाइसेंस दिलवा देते हैं,
    इसिलिये शायद बिना चाय-पानी के:
    कलम को भी गदा समझते हैं

    हाँ जी हाँ, हम ऐसे ही हैं।

    *

    किसी के ह्र्दय को अगर है दुखाया
    तो जान लीजिये:
    ऐसा बिलकुल नहीं था इरादा
    पर क्या करें;
    ऐसे ही हैं हम:
    जो देखते हैं…सच लिखते हैं
    आप चाहें न चाहें मगर
    हम तो ऐसे ही हैं।

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  3. वाह, वाह शेखर जी - आपने जान तो डाल दी हमारी कविता में...

    अब आपके नाम से पोस्ट करती हूँ यही पर :)

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  4. अरे नहीं मैडम्। कविता तो आप ही की है। जिसका विचार होता है, कविता उसी की होती है। शब्दों के हेर-फेर से कविता नहीं बनती। सशक्त विचारों से बनती है। विचार आप का था। कविता भी आप ही की है। आप को मेरे सुझाव अच्छे लगे, मैं आभारी हूँ। आप लिखती रहिये बस्।

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  5. Di!!
    vyangya kiya hai aapne...
    bahut hi sateek hai...
    padhne mein maza bhi aaya..

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