बुधवार, अप्रैल 11, 2007

चौबे जी के खर्राटे.....

बंद कमरे के सन्नाटे में
चार दीवारी से झन्नाटे,
बज जाते फिर
धीरे से रुक रुक जाते
बरसो बीत गये है फिर भी
जब-तब आ कानो से है टकराते
चौबेजी के ख़रखराते... ख़र्राटे

बात है उन दीनो की हुई
जब गर्मियों की छुट्टी
बुआ मामी संग आ पहुँची
ले छुनु मुन्नू बन्नू की टोली

जून में थी बनी दीवाली
चँदाल चौकड़ी जमी थी भाई
खुराफ़ति दिमIगो ने मिल के
एक तरकीब बनाई ....

पहुँचे बाग़ में मिल सारे
अब वन माली की शामत आई....
दरख़्त लदे थे आमो से
तोड़े आम दे पत्थर दे
चँदाल चौकड़ी ने जो तबाही मचाई
लो भैया, अब टोली की ही शामत आई....

नाक में दम जब भर गया
सभी बदो ने ये तेह किया
नही सोयेंगे सब बच्चे संग
यहाँ वहाँ की जगह तेह हो ली .....
छन्नु मुन्नू का बिस्तर था
चौबेजी से सटा हुआ
रात आते आते ही
दोनो की शामत आई...

चौबेजी की उम्र थी सत्तर
घर के बड़े थे ,रौब था सब पर
सोते थे चादर तान कर
लेकर ख़र्रटे मन भर, गज भर....

जैसे जैसे रात बड़ी
ख़र्राटे की रफ़्तार बड़ी
कानो में ठूँसी थी रुई पर
उससे भी ना बात बनी
कभी इधर पलट, कभी उधर
नींद नही आने को थी

चुननु ने मुन्नू से सलाह कर
धीरे से पास में जा कर
चौबेजी की नाक में दी तीली.....

घबरा के उठे चौबेजी
देख शैतानो को थ्योरियाँ छड़ी
लो जी वो तूफ़ान उठा घर में
अब तक याद है वो रात बड़ी

मुर्गा बनके दिन भर
कैसे निकाली थी तौबा -तौबा
चुननु मुन्नू ने छुट्टी गर्मियों की ....

चौबेजी चले गये स्वर्ग को
बच्चे भी हो गये है बड़े
पर गूजते है उस कमरे में अब भी
चौबेजी के ख़र्राटे.......

सोमवार, अप्रैल 09, 2007

शाही जनाब...

सड़क पर,बसो में,बाजारो में, कूचो में, गलियारों में, दफ़्तरों में मिलने वाले आम शहरी नागरिक का वर्णन हे ये :
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क्या
करिए अजी हम तो ऐसे हैं

मन चाहे वहाँ पीक फेंके हैं
सड़क को कूड़े -दान समझे हैं

क्या करिये अजी हम ऐसे हैं...

नही कतारें लिए हमारी
धक्का दे के सफ़र करते हें

क्या करिये अजी हम तो ऐसे हें...

देख बुजर्गो ,नारियों को
आंखें हम बंद करते हेँ
सुख चेन हमारा पहले आये
यारो हम तो सफ़र करते हें,

क्या करिये अजी हम तो ऐसे हें ...

दरिया दिल फैला कर हम रखते हें
गलत पता का भी पता देते हें

क्या करिये अजी हम ऐसे हें...

हलके कागज़ के उपर से
भारी फ़ाइल चला देते हें
चाय पानी बिना कभी भी
कलम उठाकर नही रखते हें

क्या करिये अजी हम ऐसे हें...

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किसी के हृदय और सम्मान को ठेस पहुचने का इरादा नही हे ...
ग़र बुरा लगे तो क्षमा करिएँ,
ऐसे ही हे हम ...
जो देखते हैं ......सच लिखते हैं...
क्या करिये अजी हम......ऐसे हैं.....

जेओमेट्री

दुनिया गोल है ....

धुरी पर गूमती धरती
आ जाती है वापिस धुरी पर .......

सूरज गोल है ,चन्दा भी गोल है
फिर आ जाते है वहीं पर ही
सफ़र शुरू किया था जहाँ पर
दिन रात का मिल कर कभी.....
समय
का चक्र चलता रहता हे
गोल हैं शायद इसलिए ये
सब ही .....

गर...
धरती गोल है तो मकान चौकौर क्यूं
ग़र....
दुनिया गोल है क़ब्र चौकौर क्यूं

इसलिए शायद ......

आदमी दुनिया में कहीं भी जाए आख़िर
वापिस आता है घर ही अपनी चार दीवारी में,
अपने दायरे के भीतर.....

छुप के जग से कहीं भी
चला जाए
आखिर आदमी जाता तो वही ही
छे ग़ज़ ज़मीन के नीचे
कब्रीस्तान की चार दीवारी में
क़ब्र के चार कोनुओ में सिमटकर
रहने को सदा वहीं ......

शुक्रवार, अप्रैल 06, 2007

यादें तेरी...

बहुत याद आता तेरा मुस्कुराना,
वो दबे पाँव आकर पास बैठ जाना
वो हौले से कानो में मेरे गुनगुनाना
"कोई दूर से आवाज़ दे तो चले आना"....

मैं शायर , अल्हड नादाँ
समझा नही दिल की जुबां
तेरी चुप्पी में एक बात छुपी थी
रहा मैं उस से कैसे अनजान ....

आंखों से जों बात कहीँ थी

पलकें खुली , कभी झुकी सी
सोचा आज तो लगा यही
क्यों में नैनो की मौन व्यथा
समझा नही.....
यादें तेरी...

दिल में हल्की सी आज

कसक दे गयी

जब एक पुरानी किताब से अचानक ,

तेरी शादी की तस्वीर गिर पड़ी...

तभी कानों में एक आवाज़ पड़ी

"कोई दूर से आवाज़ दे चले आना........."

नव युवती..ये कौन...

लहराती ,मदमाती
यौवन पर इतराती
बलखाती ,शर्माती
बिजली सी दौडी आती
देखो, देखो उस मोड़ से
आती यवनी ये कौन....

आने से इसके बाजे है
घंटियाँ मन उपवन में
इसके रोशन चहरे को देख
आंखें मद माय जीवन में

कितनों को ये पार लगाती
कितनों को ये राह दिखाती
इठलाती चलती बलखाती
ये यवनी है कौन....

अबला नही सबल है यारों
समय की बड़ी अटल हे यारों
आ के इसकी आगोश में यारों
खो जाते जाने कितने मन ....

समय का महत्त्व समझाती
लहराती चलती मदमाती
ये यवनी हे कौन....

जब से मिला हे इसका साथ
मैं भी रंग गयी इसके हाथ
सीखा है इस नव बाला से
समय बध्द्ता ,आत्मविश्वास

भूजो भूजो ये है कौन....

श्रीधरन की राज दुलारी
ये है जीं मेट्रो मेरी प्यारी

दिल्ली की है यही तो शान
मेट्रो,हर दिल का अरमान ......


















गुरुवार, अप्रैल 05, 2007

सुबह सवेरे की पवन बेला में....

आज सुबह की मदमाति हवा में
भीनी ख़ुशबू का था अहसास
साथ होकर भी जाने क्यूं
ना था बावरा मन मेरे पास
क़दमों पे पर थे लगे ऐसे
हवा में नाचते हो वो जैसे
आसमान लगता था रंगीन
आँखों पे चश्मा गुलाबी हो पहना
आया ख़याल दिल में फिर यही
लगती है दुनिया इतनी हसीं तभी
जब दिल हो खिला हुआ
लागे रोशन हर चेहरा
मन अच्छा है
तो दिखता है
कीचड़ नही कमल सदा

देखा था मैने आज सुबह...
मस्जिद की मीनारो के
ऊपर मंडरते पंछियों को
कब्रिस्तान से गुज़रते
पेड़ों के कारवाँ को
उसको भी देखा था मैने
सुबह सवेरे उठते हुए
जिसके आने पे रोशन हो
सुबह सवेरे शाम मेरे
देख के कुदरत के नेक करिश्मे
निकला ये मेरे दिल से
इतनी सुंदर सुगढ़ रचना से
सुबुह सवेरे मन क्यूं ना खिले

सुबाह सवेरे की पावन बेला में
कोटी कोटी उसको प्रणाम
जग का रचियता दाता है जों
उस अद्भुत जोगी को प्रणाम