रविवार, मई 27, 2007

इन्द्रधनुश के उस पार्…एक कहानी

"टन,टन,टन,टन्……॥'राधिका ने घबरा कर घडी की तरफ़ देखा।
" नौ बजने को आये हे,ना जाने कहा रह गयी ये लडकी " पिछ्ले आधे घन्टे मे अन्गिनत बार दरवाज़ा खोल कर देख आयी थी पर सन्ध्या का कोई नामो निशान नही था
"अगर सन्ध्या के बाबा ुसके आने से पहले घर आ गये तो तूफ़ान आ जायेगा" धीरे से मुन्ह मे बुदबुादाते हुये राधिका रसोई की तरफ़ जैसे ही मुडी ,दरवाज़े पर घन्टी बजीदौड कर दरवाज़ा खोला ,बाहर सन्ध्या खडी थी॥
"कितनी देर लगा दी सन्ध्या,मेरी तो जान निकले जा रही थी,क्या हुआ,कहा रह गयी थी,दिन मे जब फोन किया था तूने तो पूरी बात नही बतायी"
"अन्दर चले मा,सारी बात यही पूछ लोगी क्या"सन्ध्या ने हल्के से मुस्कुराते हुए बोली
""अरे हा, अन्दर आ बेटा,मै बस यू ही परेशान हो रही थी,तूने शाम से कुछ खाया क्या"
सन्ध्या ने ना मे सर हिला दिया
"अछा,मैने पोहा बनाया हे,अभी लाती हु"बोलते हुए राधिका रसोइघर मे घुस गयी
"पोहा बहुत टेस्टी बना हे मा"प्लेट नीचे रखते हुए सन्ध्या बोली
"अब बता,कहा गयी थी"राधिका बहुत बेचैन थी
"तुम्हे याद हे मा,मैने फ़्लोरिडा यूनिवर्सिटी मे आर्ट और डिसाइन के कोर्स की स्कोलरशिप की अर्जी भरी थी"
"हा,याद हे,तुम्हारे बाबा से आज तक छुपा कर रखी हे ये बात हमने" राधिका बोली।
"क्या हुआ उसका'
"आज उनके यहा फ़ाइनल काल था"
"फिर"
सन्ध्या के चेहरे पर एक मुस्कान फेल गयी"मेरा सेलेक्शन हो गया हे मा" केहते हुए उसने मा को बाहो से जकड लिया"
"सच्………मे बहुत खुश हू" राधिका मुस्कुरायी ,पल भर मे उस्की मुस्कान चिन्ता की लकिरो मे बदल गयी
मा बेटी ने एक दूसरे का चेहरा देखा,दोनो के मन मे एक ही खयाल था"बाबा को कौन मनाएगा"

बाबा यानी बाबू विश्वास राव पाटिल्…1970 मे कोहलापुर से अपनी नयी दुल्हन को ले कर मुम्बई आये थे।किस्मत ने साथ दिया और उन्हे बी।एम्।सी मे अकौन्टन्ट की नौकरी मिल गयी थीथाने की एक चाव्ल मे दो बेडरूम की अपनी खोली बना ली थी इतने सालो मे।
उनकी पहली सन्तान लडकी थी……उ्न्होने नाम दिया पूर्निमा…दूज के चान्द सी उजली थी उनकी बेटी…"कोई बात नही बाउ,अगली बार बेटा होगा,पेहली कन्या लक्श्मी हे" आयि ने तस्सली दी

पर प्राराब्द्द तो तेह हे,बद्लेगा

दूसरी बार फिर उन्हे लड़की हई…अमाव्स्या सी काली…।भारी मन से उस्का नाम सन्ध्या रखा। सन्ध्या की डिलिवरी के वक़्त हुइ कोम्प्लिके्शन्स की वजह से डाकटर ने राधिका को फिर से मा ना बनने की सलाह दी

बेटा ना होने का दुख पाटिल बाबू को हमेशा नासूर की तरह चुबता रहाऔर उन्होने शायद राधिका को और अपनी बेटियो को इस बात के लिये कभी माफ़ नही किया
श्री पाटिल मानते थे कि लड्कियो की जगह चुल्हा चौका और घर ग्रेह्स्ती तक ही सीमित हे
पूर्निमाका विवाह उनहोने 19 साल की उम्र मे ही कर दिया था पर राधिका के ज़ोर देने पर सन्ध्या को उन्होने मिठीबाई कालेज मे आर्ट्स पड्ने की ईजाज़त दे दी थी पर इसी शर्त पर कि बी ए पास करते ही वो उसकी शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जायेन्गे
सन्ध्या की रुचि बचपन से ही कला मे थी…कागज़ पर आडी तिरछी रेखाए बनाकर उनमे रन्ग बरना उसका शौक था…राधिका को सन्ध्या के टेलेन्ट का आभास था और मन ही मन उसके साथ थी पर अपने पति से डरती थी
सन्ध्या की सहेली म्रिनाल को सन्ध्या के अध्बुत टेलेन्ट का अहसास था और उसने ही फ़्लोरिडा यूनिवर्सिटी के पूरी फोर्मलिटिस को पूरा करने मे मदद की थी और सारी फ़ाइनेस का इन्तेज़ाम किया था
पर अब बाबा को मनाये कौन और कैसे?

""ट्रिन ट्रिन" दरवाज़े की घन्टी बजी…
उदेड बुन से बाहर निकल कर राधिका ने दरवाज़ा खोला
"इतनी देर लगा दी दरवाज़ा खोलने मे,कब से घन्टी बजा रहा हु,कहा थी …।" दरवाज़े मे घुसते हुए झनझनाते हुए श्री पाटिल बोले
"जी,वो रसोइ मे……॥"इतना ही बोल पायी राधिका
"ठीक हे,ठीक हे भोजन पारोसा,महारा माथा मगज्री ना करा" अपनी टोपी दीवार पर टन्गी कील पर टिकाते हुए बोले
सन्ध्या ने राधिका की तरफ़ देखा और मौन मे दोनो ने अग्री किया कि आज की रात स्चोलर्शिप की बात करने के लिये ठीक नही हे
और जो अगले दिन हुआ उसने पाटिल बाबू की सोच बदल दी

"ट्रिन ट्रिन" दरवाज़े की घन्टी बजी…
राधिका आन्खे मलते हुए उठी घडी मे छ्ह बज रहे थे।"इतनी सुबह सुबह कौन हो सकता हे "
दरवाज़ा खोला तो सामने पूर्निमा खडी थी और साथ मे उसका 4 साल का बेटा ऊत्कल था
"पूनी " राधिका ने घबरा के बोला
"आई" पूर्निमा बिलखती हुइ राधिका से लिपट गयी

"क्या हुआ बेटा ,और ये सामान्… अचानक राधिका की नज़र दरवाज़े पर पडे सूट्केस पर पडी

"सन्कल्प मुझे हमेशा के लिये यहा छोड गये हे…।'पूर्निमा की सुबकिया सुन कर श्री पाटिल और राधिका भी बाहर आ गये
पूरी बात जान कर श्री पाटिल ने अपना सर पकड लिया।उन्हे एह्सास था कि उनका दामाद उनकी बेटी से बद सलूकी से पेश आता था,पर बात यहा तक पहुच जायेगी उन्होने सोचा ना था

"बाबा,वो बोले कि तुम फ़ूहड हो, तुम्हारे मा बाबा ने अन्पड भैन्स मेरे गले बान्ध दी हे,बताओ बाबा इसमे मेरा क्या कुसूर्……"
पाटिल बाबू ने सहमे से खडे ऊत्कल को गले लगा लिया


कुछ दिन बीत गये,अपने दामाद से मिल कर बात करने की कोशिश भी की पर कोइ फ़ायदा नही हुआ…पूर्निमा ने भी अपनी नियती से जैसे समझोता कर लिया

"मा, आज जवाब देने का आखिरी दिन हे"सन्ध्या
पूर्निमा के साथ हुए वाकयात की वजह से राधिका ये भूल ही गयी थी
"ह्म्म …आज देखते हे बेटा"

शाम को जब बाबा घर आये,सन्ध्या चाय का प्याला लेकर उनके सामने जा बैठी
"चाय बाबा'
"हा बेटी,आज बहुत थक गया हू मे"
"बाबा,वो आपसे कुछ बात करनी थी"
"हा, बोल"
डरते डरते सन्ध्या ने स्चोलर्शिप की सारी बात कह दी

"अमेरिका…।" खडे होते हुए गस्से से पाटिल बाबू बोले
"तुने सोचा भी कैसे…।'
"और तुम, तू जानती थी इस सब के बारे मे…लड्की को बाहर भेजेगी" राधिका की तरफ़ बड्ते हुए तमतमाते हुए वे बोले
"हा,मे उसके साथ हू" ना जाने कहा से हिम्मत आ गयी थी राधिका मे, वो अपने पति का सामना करने को खडी हो गयी
और बाबा,आप चाहते हे कि सन्ध्या का हाल भी मेरी तरह हो…।ज़माना बहुत आगे निकल गया है बाबा, बस आप पीछे रह गये "पूर्निमा बोली
"बाबा,मुझे अपनी ज़िन्दगी जीने का मौका दीजिये,मे आपका बेटा बन कर आपका नाम रोशन करना चाह्ती हु"हाथ जोड कर भीगी पल्को से सन्ध्या ने आखिरी विनती की

हवाइजहाज़ की खिड्की से बाहर देखते हुए सन्ध्या का मन छलान्गे मार रहा था …अपनी मन्ज़िल कि ओर बड्ने को…।
पूर्निमा वापस अपने घर चली गयी थी और फ़ेशन डिसाइन का कोर्स शुरु किया था
बाबा ने इजाज़त दे दी थी उसे पन्ख फैला कर उडने की
अपने बाबा का आशिर्वाद और मा का प्यार लिये वो अपने सन्जोने चली थी वो…इन्द्रधनुश के उस पार्…॥











8 टिप्‍पणियां:

  1. आज पहली बार आपके ब्लौग पर आया.पहले पृष्ठ की सारी कहानियां ,कविताऎं पढ़ गया.बहुत अच्छा लिखती है आप.अब आता रहुंगा.ऎसा ही लिखती रहें. कहानी "मंजिल मंजिल" पढ़कर आंखें नम हो गयीं..इतनी अच्छी कहानी के लिये धन्यवाद.

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  2. विकास का एक धागा कैसे अंतरिक द्वद्वों से बंधा था पर जिसमें लगन हो वह चुनौतियों को स्वीकार कर कर्म पथ पर बढ़ ही जाता है…यह सारी खुबियाँ इस कहानी में नजर आ रही हैं…
    लगता है आप मुंबई की रहनेवाली हैं…!!!
    संवेदना और सरलता का सुंदर संगम।

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  3. काकेश जी, आपको मेरा ब्लोग पसन्द आया ये जान कर अछा लगा हौसला अफ़्ज़ाही के लिये बहुत शुक्रिया।


    डिवाइन इडिया जी,
    कहानी को परखने के लिये आपका धन्यवाद्। और हा,मे दिल्ली की निवासी हु,बस लगा कि इस कहानी का प्रिश्ठ्ब्भूमि मुम्बई होना चाहिए तो लिख दिया :)

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  4. बहुत सुंदर कहानियाँ होती हैं आपकी. अभी अभी मंजिल मंजिल भी पढ़ी.

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  5. एक अच्छी कहानी ! बहुत अच्छा लिखती हैं आप और पूरी कहानी लिखने की मेहनत भी कर पाईं आप । बधाई !
    घुघूती बासूती

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  6. रूढ़ीवाद पर एक सटीक प्रहार करने वाली सच्ची रचना है। पुराने और थोथे हो चले पुरुष-प्रधान समाज की पोल खोलती है यह कहानी। कहानी में भाषा और सवादों का प्रयोग बहुत अच्छे ढंग से नारी के आगे बढ़ने के जोश और औचित्य को प्रस्तुत करता है।

    एक और परिपक्व रचना पर मेरी बधाई स्वेएकर करें गायत्री जी।

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  7. एक सुन्दर परिपक्व भाव भरी रचना पढने को मिली.. लिखते रहिये

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