बुधवार, मई 30, 2007

रिश्तों को रिसते देखा है हमने..

रिश्तों को रिसते देखा है हमने
बरसों से संजोइ इक पौध दी
प्यार और विश्वास से सांवारी हुई
वक़्त की आँधियों से उसे
जद्द से उखाड़ाते
देखा है हमने...

एक चुप्प बरसी है आँगन में
सीली दीवारों से निकल कर
गरजते बादलो को बरसते
देखा है हमने .......

एक चोट लगी थी हल्की सी
मरहम की ज़रूरत भी ना थी
खरॉंचों को नासूर बन सड़ाते
देखा है हमने .......

दुनिया के काँधे पे सर रख
जब सिसकियाँ भरी हमदर्दी के लिए
अपने गमो पर ग़ैर आँखों को
जमकर हँसते
देखा है हमने .....

तेरे शहर से दिल भर गया है शॉना
तीरे कूचे गलियों को
धीरे से सरकते
देखा है हमने ......

रिश्तों को रिसते देखा है हमने॥

मंगलवार, मई 29, 2007

बहुत जल्दी में हूँ ........

ग्यांन स्त्रौत कहीं सूख ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ
मॉरपंखी कलाम की स्याही
कहीं सूख ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ

व्यापक विचार समेटे खड़ा मन
साँझ के अंतिम छ्होर पर
लेख तार कोई टूट ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ

विचार विमर्श उत्पीड़न उलांगना
द्वंध प्रतिद्वंध आँचल में समेटे
ह्रदय गति कहीं रुक ना जाए
लिख लूं बहुत जल्दी में हूँ ........

रविवार, मई 27, 2007

इन्द्रधनुश के उस पार्…एक कहानी

"टन,टन,टन,टन्……॥'राधिका ने घबरा कर घडी की तरफ़ देखा।
" नौ बजने को आये हे,ना जाने कहा रह गयी ये लडकी " पिछ्ले आधे घन्टे मे अन्गिनत बार दरवाज़ा खोल कर देख आयी थी पर सन्ध्या का कोई नामो निशान नही था
"अगर सन्ध्या के बाबा ुसके आने से पहले घर आ गये तो तूफ़ान आ जायेगा" धीरे से मुन्ह मे बुदबुादाते हुये राधिका रसोई की तरफ़ जैसे ही मुडी ,दरवाज़े पर घन्टी बजीदौड कर दरवाज़ा खोला ,बाहर सन्ध्या खडी थी॥
"कितनी देर लगा दी सन्ध्या,मेरी तो जान निकले जा रही थी,क्या हुआ,कहा रह गयी थी,दिन मे जब फोन किया था तूने तो पूरी बात नही बतायी"
"अन्दर चले मा,सारी बात यही पूछ लोगी क्या"सन्ध्या ने हल्के से मुस्कुराते हुए बोली
""अरे हा, अन्दर आ बेटा,मै बस यू ही परेशान हो रही थी,तूने शाम से कुछ खाया क्या"
सन्ध्या ने ना मे सर हिला दिया
"अछा,मैने पोहा बनाया हे,अभी लाती हु"बोलते हुए राधिका रसोइघर मे घुस गयी
"पोहा बहुत टेस्टी बना हे मा"प्लेट नीचे रखते हुए सन्ध्या बोली
"अब बता,कहा गयी थी"राधिका बहुत बेचैन थी
"तुम्हे याद हे मा,मैने फ़्लोरिडा यूनिवर्सिटी मे आर्ट और डिसाइन के कोर्स की स्कोलरशिप की अर्जी भरी थी"
"हा,याद हे,तुम्हारे बाबा से आज तक छुपा कर रखी हे ये बात हमने" राधिका बोली।
"क्या हुआ उसका'
"आज उनके यहा फ़ाइनल काल था"
"फिर"
सन्ध्या के चेहरे पर एक मुस्कान फेल गयी"मेरा सेलेक्शन हो गया हे मा" केहते हुए उसने मा को बाहो से जकड लिया"
"सच्………मे बहुत खुश हू" राधिका मुस्कुरायी ,पल भर मे उस्की मुस्कान चिन्ता की लकिरो मे बदल गयी
मा बेटी ने एक दूसरे का चेहरा देखा,दोनो के मन मे एक ही खयाल था"बाबा को कौन मनाएगा"

बाबा यानी बाबू विश्वास राव पाटिल्…1970 मे कोहलापुर से अपनी नयी दुल्हन को ले कर मुम्बई आये थे।किस्मत ने साथ दिया और उन्हे बी।एम्।सी मे अकौन्टन्ट की नौकरी मिल गयी थीथाने की एक चाव्ल मे दो बेडरूम की अपनी खोली बना ली थी इतने सालो मे।
उनकी पहली सन्तान लडकी थी……उ्न्होने नाम दिया पूर्निमा…दूज के चान्द सी उजली थी उनकी बेटी…"कोई बात नही बाउ,अगली बार बेटा होगा,पेहली कन्या लक्श्मी हे" आयि ने तस्सली दी

पर प्राराब्द्द तो तेह हे,बद्लेगा

दूसरी बार फिर उन्हे लड़की हई…अमाव्स्या सी काली…।भारी मन से उस्का नाम सन्ध्या रखा। सन्ध्या की डिलिवरी के वक़्त हुइ कोम्प्लिके्शन्स की वजह से डाकटर ने राधिका को फिर से मा ना बनने की सलाह दी

बेटा ना होने का दुख पाटिल बाबू को हमेशा नासूर की तरह चुबता रहाऔर उन्होने शायद राधिका को और अपनी बेटियो को इस बात के लिये कभी माफ़ नही किया
श्री पाटिल मानते थे कि लड्कियो की जगह चुल्हा चौका और घर ग्रेह्स्ती तक ही सीमित हे
पूर्निमाका विवाह उनहोने 19 साल की उम्र मे ही कर दिया था पर राधिका के ज़ोर देने पर सन्ध्या को उन्होने मिठीबाई कालेज मे आर्ट्स पड्ने की ईजाज़त दे दी थी पर इसी शर्त पर कि बी ए पास करते ही वो उसकी शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जायेन्गे
सन्ध्या की रुचि बचपन से ही कला मे थी…कागज़ पर आडी तिरछी रेखाए बनाकर उनमे रन्ग बरना उसका शौक था…राधिका को सन्ध्या के टेलेन्ट का आभास था और मन ही मन उसके साथ थी पर अपने पति से डरती थी
सन्ध्या की सहेली म्रिनाल को सन्ध्या के अध्बुत टेलेन्ट का अहसास था और उसने ही फ़्लोरिडा यूनिवर्सिटी के पूरी फोर्मलिटिस को पूरा करने मे मदद की थी और सारी फ़ाइनेस का इन्तेज़ाम किया था
पर अब बाबा को मनाये कौन और कैसे?

""ट्रिन ट्रिन" दरवाज़े की घन्टी बजी…
उदेड बुन से बाहर निकल कर राधिका ने दरवाज़ा खोला
"इतनी देर लगा दी दरवाज़ा खोलने मे,कब से घन्टी बजा रहा हु,कहा थी …।" दरवाज़े मे घुसते हुए झनझनाते हुए श्री पाटिल बोले
"जी,वो रसोइ मे……॥"इतना ही बोल पायी राधिका
"ठीक हे,ठीक हे भोजन पारोसा,महारा माथा मगज्री ना करा" अपनी टोपी दीवार पर टन्गी कील पर टिकाते हुए बोले
सन्ध्या ने राधिका की तरफ़ देखा और मौन मे दोनो ने अग्री किया कि आज की रात स्चोलर्शिप की बात करने के लिये ठीक नही हे
और जो अगले दिन हुआ उसने पाटिल बाबू की सोच बदल दी

"ट्रिन ट्रिन" दरवाज़े की घन्टी बजी…
राधिका आन्खे मलते हुए उठी घडी मे छ्ह बज रहे थे।"इतनी सुबह सुबह कौन हो सकता हे "
दरवाज़ा खोला तो सामने पूर्निमा खडी थी और साथ मे उसका 4 साल का बेटा ऊत्कल था
"पूनी " राधिका ने घबरा के बोला
"आई" पूर्निमा बिलखती हुइ राधिका से लिपट गयी

"क्या हुआ बेटा ,और ये सामान्… अचानक राधिका की नज़र दरवाज़े पर पडे सूट्केस पर पडी

"सन्कल्प मुझे हमेशा के लिये यहा छोड गये हे…।'पूर्निमा की सुबकिया सुन कर श्री पाटिल और राधिका भी बाहर आ गये
पूरी बात जान कर श्री पाटिल ने अपना सर पकड लिया।उन्हे एह्सास था कि उनका दामाद उनकी बेटी से बद सलूकी से पेश आता था,पर बात यहा तक पहुच जायेगी उन्होने सोचा ना था

"बाबा,वो बोले कि तुम फ़ूहड हो, तुम्हारे मा बाबा ने अन्पड भैन्स मेरे गले बान्ध दी हे,बताओ बाबा इसमे मेरा क्या कुसूर्……"
पाटिल बाबू ने सहमे से खडे ऊत्कल को गले लगा लिया


कुछ दिन बीत गये,अपने दामाद से मिल कर बात करने की कोशिश भी की पर कोइ फ़ायदा नही हुआ…पूर्निमा ने भी अपनी नियती से जैसे समझोता कर लिया

"मा, आज जवाब देने का आखिरी दिन हे"सन्ध्या
पूर्निमा के साथ हुए वाकयात की वजह से राधिका ये भूल ही गयी थी
"ह्म्म …आज देखते हे बेटा"

शाम को जब बाबा घर आये,सन्ध्या चाय का प्याला लेकर उनके सामने जा बैठी
"चाय बाबा'
"हा बेटी,आज बहुत थक गया हू मे"
"बाबा,वो आपसे कुछ बात करनी थी"
"हा, बोल"
डरते डरते सन्ध्या ने स्चोलर्शिप की सारी बात कह दी

"अमेरिका…।" खडे होते हुए गस्से से पाटिल बाबू बोले
"तुने सोचा भी कैसे…।'
"और तुम, तू जानती थी इस सब के बारे मे…लड्की को बाहर भेजेगी" राधिका की तरफ़ बड्ते हुए तमतमाते हुए वे बोले
"हा,मे उसके साथ हू" ना जाने कहा से हिम्मत आ गयी थी राधिका मे, वो अपने पति का सामना करने को खडी हो गयी
और बाबा,आप चाहते हे कि सन्ध्या का हाल भी मेरी तरह हो…।ज़माना बहुत आगे निकल गया है बाबा, बस आप पीछे रह गये "पूर्निमा बोली
"बाबा,मुझे अपनी ज़िन्दगी जीने का मौका दीजिये,मे आपका बेटा बन कर आपका नाम रोशन करना चाह्ती हु"हाथ जोड कर भीगी पल्को से सन्ध्या ने आखिरी विनती की

हवाइजहाज़ की खिड्की से बाहर देखते हुए सन्ध्या का मन छलान्गे मार रहा था …अपनी मन्ज़िल कि ओर बड्ने को…।
पूर्निमा वापस अपने घर चली गयी थी और फ़ेशन डिसाइन का कोर्स शुरु किया था
बाबा ने इजाज़त दे दी थी उसे पन्ख फैला कर उडने की
अपने बाबा का आशिर्वाद और मा का प्यार लिये वो अपने सन्जोने चली थी वो…इन्द्रधनुश के उस पार्…॥











मेरे प्रिय

इन बैरागी नैनन का चित्त ना जाने कोई
देख तुम्हे अनदेखा कर दे
ना देखे तो व्याकुल होये......
इन् मदमाते अधरो का
भेद ना जाने कोई
संग तुम हो तो मौन रहे
तुम जाओ तो तेरा नाम जप लोय.....

इन् बैरन कदमो का
राज़ ना जाने कोई
साथ तुम्हारे ना चले,
तुम जाओ तो पीछे होये.....

मन मे बसे तुम सान्वरे
तुम क्यू ये ना समझे
ना मेरी मे हां हे छुपी
क्या तुम समझे
हा, तुम अब समझे…

और अब, मे पूर्ण तेरी हुई प्रिय

गुरुवार, मई 24, 2007

बस एक कदम.....

उठो, जागो, कदम बढाओ
ज़िन्दगी के हर मोड पर
प्रारब्ध की मिलती हस्ती हे
बस एक कदम बढाने
की ज़रूरत हे क्यूंकि
हर कदम पर जिन्दगी बहती हे ....


बंद कमरो में घुटी साँसे हे
बंद खिड़की खोल कर हवा को
बहने दो
एक हाथ बढाने पर
हवाएँ रुख बदलती हे .....

किसी का दर्द बाँचो
कुछ अपनी कहो
मन खोलो,कुछ बोलो
एक मौन की चुप के पार
कोई एक ज़िंदगी उबरती हे.....

रविवार, मई 20, 2007

सलवटे.....

उठी सुबाह तो खुद को मुस्कुराते पाया
लगा कल रात सपने में था तू आया
तेरी उँगलियों की थर्कन बदन पर मिली
पलट के देखा तो बिस्तर पर
सलवटे थी पडी ......

लगा कल रात तू यही था यही
मेरी सान्सो में तेरी खुश्बू थी बसी
ख्वाब था शायद या था हक़ीक़त
तू यही था मेरे करीब ...
बहुत ही करीब.....

निर्वान मार्ग

सड़क पर इन्सानो कि भीड़
आस्मान मे सितारो कि भीड़
राशन के लिये कतारे और भीड
कहा है शान्ति का मार्ग…

बाज़ारो मे सामानो कि भीड
कब्रीस्तान में मज़ारो कि भीड
हस्पताल मे बीमारो कि भीड
कहां है निर्वान का द्वार …

मन्दिर मे भक्तो कि भीड़
सीणेमा मे आसक्तो कि भीड़
पहाडों पर सैलानियो की भीड
कहां है मुक्ति का मार्ग्……

घर पर मेहमानो कि भीड़
मन मे सवालो कि भीड
समाज मे रुडिवादियो कि भीड
कहा है ग्यान का मार्ग्…॥

इस भीड़भाड़ से निकल के
एक कोने मे छुपे बेअदब
बेलगाम बचपन को
अमर करने का
मार्ग दिखा दे
ए मौला……

इसके पाक मन के सहारे
मैंऔर करु मोक्श कि प्रप्ति
तब जीवन से तर जाऊं .....

मंगलवार, मई 15, 2007

मंज़िल मंज़िल......एक कहानी

"क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ?" ये शब्द सुनकर मेरा ध्यान उन की तरफ गया जों रेलवे प्लेटफार्म पर मेरी सीट के पास खडे थे।
" जी" सकपका कर मैंने सीट पर फैला अपना समान समेटा और वो बैठ गए
" शताब्दी का इंतज़ार कर रही हो बेटी ? "........

" जी " जवाब देकर मैंने अपना ध्यान प्रेमचंद की "सेवासदन" की तरफ़ फिर से करना चाहा .

"क्या दिल्ली जा रही हो बेटी ? वो फिर बोले ।

बचपन में माँ ने सिखाया था" अजनबियों से बात नही करते " अधेढ़ उम्र हो गयी और दो बच्चो कि मा हूँ पर बरसो पहले की इस सीख ने कितने अनजाने रिश्तों को बनने से पहले ख़त्म दिया था ....पर ना जाने कैसी आत्मीयता और स्नेह था उनकी आवाज़ में, कि मैं अनायास ही बोल पड़ी " जी, मेरा मायक़ा हे मेरा वहाँ "।


" सामान बहुत हे बेटी, लंबे समय के लिए जा रही हो ?", "जी' कहते मेरा गला भर आया ."अध्यापिका हूँ पहले यहीं अलीगंज में पढ़ाती थी, अब दिल्ली तबादले की अर्ज़ी दी है "

"और तुम्हारा परिवार..पति ,बच्चे ......?"


मेरी चुप्पी शायद बहुत कुछ कह गयी थी....जो लब ना कह सके,भीगी पलकों ने बयान कर दिया ...



कुछ देर की मौन के बाद वो मेरी तरफ़ मुड कर बोले "मेरे दो बेटे है ,बेटी...दोनो ख़ुश है अपने परिवारों के साथ ..........एक डॉक्टर है कनाडा में और दूसरा एंजिनीर, नेवार्क में ..कभी, कभी जाता हूँ उनसे मिलने...पर यहाँ से दूर नही रहा जाता...अपने वतन की ख़ुश्बू और इसमे दफ़न हुई यादें वापस खींच लाती है ....


"मेरी बहन है दिल्ली में...गर्मियों की छुट्टियों में उनके पास चला जाता हूँ ,वहाँ उसके पोते- पोती हे ,दिल लगा रहता है उनके साथ ... "

" और आपकी पत्नी...." अनायास मेरे मुँह से निकल गया.

बहुत देर शांत रहे और फिर बोले " बहुत साल पहले, मेरी पत्नी और मेरे बीच हुए एक झगड़े की वहज़ह से वो अपने मायक़े चली गयी ...... उसे लगता था की शायद मेरे पास उसके लिए वक़्त नही था, शायद मैं कभी उसे बता नही पाया वो मेरे लिए क्या मायने रखती है .........मैने ग़ुस्से में उसे घर छोड़ने के लिए कहा, और वो छोड़ गयी ........... बच्चे मेरे पास थे...कुछ दिन बीत गये और एक दिन ये ख़बर आई की कानपुर से लखनऊ आते वक़्त एक सड़क दुर्घटना में वो गंभीर रूप से घायल हो गयी थी ......."

मैने देखा कि उनकी आँखें नम थी ... आँखों से चश्मा उतार कर साफ़ करते हुए वो आगे बोले " मैं जब तक हस्पताल पहुँचा, वो अपनी अंतिम साँसें ले रही थी .....बस जाते जाते एक मुझे एक चिट्ठी थमा गयी जो शायद रैलवे प्लएटफ़ॉर्म पर बैठ कर मुझे लिखी थी " .......

"क्या था उस चिट्ठी में" मेरे गले से धीमी सी आवाज़ निकली।

एक पुराना काग़ज़ ,जिसने वक़्त की मार देती थी , मेरी तरफ़ बड़ा दिया... उसमे लिखा था,

"प्रिय पतिदेव,

कभी- कभी हम सुई को हाथी और हाथी को सुई समझ लेते है .....अगर छोटी छोटी बातों को भुला कर हम एक दूसरे कई भावनाओ का सम्मान करें , तो जीवन कितना सुखमय हो...
मैं कभी तुम्हे ये ना कह सकी जो आज लिख रही हूँ ---------
काश आप मुझे कभी बोल सकते की आप मुझे कितना चाहते है ......मैं दुनिया के सारे कष्ट सह सकती हूँ पर आपकी रुसवाई और बेरूख़ी मेरे सम्मान को मंज़ूर नही ...आज आपने मुझे घर छोड़ने के लिए कहा, मैं घर से निकल गयी ..... काश, अपने एक बार मुझे रुकने के लिए कहा होता.... जो बात आप आज नही समझे, मेरे जाने के बात समझेंगे"...

आपकी, सिर्फ़ आपकी,

"उर्मी"......

काग़ज़ को वापस जेब में डालते हुए वो बोले "इससे मैं हमेशा अपने पास रखता हूँ और अब मेरेएकाकी जीवन का यही सहारा है ..... उर्मिला की बात तो मैं समझा , जब तक समझा वो चली गयी थी,अकेले......"

बहुत सन्नाटा सा छा गया था हुमरे आस पास तभी दूर से आती हुई ट्रैन की सीटी से हुमारा ध्यान भंग हुआ

डब्बा जैसे लगा ,बुज़ुर्गवार के कूलीए ने उनका समान गाड़ी में डालना शुरू किया. " आ रही हो बेटी?" उन्होने पूछा। "
"nahi बाबा, मैं घर जाऊंगी" मैं बोली...
उनके चहरे पर हलकी सी मुस्कान फैल गयी ....
फिर मिलेंगे बेटी....मेरी मंज़िल तो यही ही है"........ चलती गाड़ी से हाथ हिलते हुए उन्होने मुझसे अलविदा ली और मैंने घर जाने के लिए कुली को आवाज़ दी. हाथ में मोड़ा हुआ काग़ज़ मैने किताब के पन्नो में सहेज दिया......
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शाम को दरवाज़े की डोर बेल की आवाज़ पर दरवाज़ा खोला तो सामने बहुत थके हुए सुधीर दिकाई दिए आँखें लाल थी, लग रहा था की रोए थे शायद...
" सुधा, तुम ....." उनका गला भर आया और उन्होने जकड़ कर मुझे अपने आंलिनगान में ले लिया "मुझे लगा था शायद.........."
"शह्ह, ......मैने उनके होंठों पर उंगली रख उनके काँधे से सर लगा कर रो पड़ी...
बाहर सूरज ढल रहा था, अंधेरो का अब डर नही था मुझे ,मेरी मंज़िल जो अब मेरे साथ थी...दोबारा.... " धन्यवाद बाबा" ...मैने धीरे से मन बोला.......

रविवार, मई 13, 2007

कशमकश .....

एक कशमकश है , है नाम - ज़िंदगी
कभी ख्वाब दिखती , कभी रवानगी

दौड़ता रहा पीछे जिसके तू दिन भर
तेरी परछाई थी , साथ चली तेरे दिलबर
अब हुई शाम और तू मुड़ा है अब
कहाँ है वो.......
वो घुल गयी साँझ की किरणो के साथ
शाम ढले आने वाली शब बन कर

'शेष कल' ....