शुक्रवार, सितंबर 14, 2007

कुछ त्रिवेनियाँ .......

धीमी सी हैं साँसें मेरी
बहुत तेज़ पर रफ़्तार तेरी

ए मौत तू जीतेगी जंग आज......
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ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त का बाज़ार है गरम साहिब
हुस्न,इश्क़ और जज़्बात बहुत बिकते हैं यहाँ

वफ़ा और क़ुर्बानी की क़ीमत पर है बहुत कम....
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जोड़ के रक्खा था जिसने सबको
तागा वो आज पर चटक हीगया

टूटे टुकड़े ज़ख़्म छोड़ गये गहरे......
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जादूगर ज़ो छू मंतर बोलेगा
दिखते को ग़ायब कर देगा

नफ़रत करे फ़ना तो शफा मानू ........
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मा के पल्लू में छुपा करती थी जो कल् तक
आज शर्मा के अपने आँचल में सिमटी बैठी है

पराया धन है ज़ो ले जाएँगे डोली में कहार.......
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5 टिप्‍पणियां:

  1. त्रिवेणियां अच्छी लगी । विशेष कर :
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    जादूगर ज़ो छू मंतर बोलेगा
    दिखते को ग़ायब कर देगा

    नफ़रत करे फ़ना तो शफा मानू ........
    -----
    ईकविता में अपनी कविताए भेजेंगे तो अच्छा लगेगा।
    http://launch.groups.yahoo.com/group/ekavita/

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  2. बहुत उम्दा!! बधाई. गुलजार जी की इस विधा में कम ही लोग पारंगत हैं.

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  3. Anoop ji,
    shukriya,aapki hausla afzaahi ke liye.
    ekavita ko zarur explore karungi...ahut shukriya :)

    Lal Sahab,

    humesha ki tarah aapki feedback ka intezaar tha. bahut shukriya :)

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  4. बहुत अच्छा लगा पढ़कर…
    शब्दों का सुंदर प्रयोग किया तथ्य को समझते हुए…।

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