गुरुवार, अप्रैल 05, 2007

सुबह सवेरे की पवन बेला में....

आज सुबह की मदमाति हवा में
भीनी ख़ुशबू का था अहसास
साथ होकर भी जाने क्यूं
ना था बावरा मन मेरे पास
क़दमों पे पर थे लगे ऐसे
हवा में नाचते हो वो जैसे
आसमान लगता था रंगीन
आँखों पे चश्मा गुलाबी हो पहना
आया ख़याल दिल में फिर यही
लगती है दुनिया इतनी हसीं तभी
जब दिल हो खिला हुआ
लागे रोशन हर चेहरा
मन अच्छा है
तो दिखता है
कीचड़ नही कमल सदा

देखा था मैने आज सुबह...
मस्जिद की मीनारो के
ऊपर मंडरते पंछियों को
कब्रिस्तान से गुज़रते
पेड़ों के कारवाँ को
उसको भी देखा था मैने
सुबह सवेरे उठते हुए
जिसके आने पे रोशन हो
सुबह सवेरे शाम मेरे
देख के कुदरत के नेक करिश्मे
निकला ये मेरे दिल से
इतनी सुंदर सुगढ़ रचना से
सुबुह सवेरे मन क्यूं ना खिले

सुबाह सवेरे की पावन बेला में
कोटी कोटी उसको प्रणाम
जग का रचियता दाता है जों
उस अद्भुत जोगी को प्रणाम

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