बुधवार, अप्रैल 16, 2008

भीड़

किसी ने था दामन खींचा और किसी ने सर से था घसीटा
हाथ कई उस पर पड़े थे ,कई लातो ने ठोकर जड़े थे
बस कसूर एक ही था उसका ,अबला थी -अकेली थी वो
कोशिश कर रही थी ज़िंदा रखने की
अपने अस्तित्वा को
अकेले ही ,अपने दम पर ,बिना किसी सरमाये के ....

"आप बस नाम बताइए सज़ा हम दिलवाएँगे
इसकी तार तार हुईअस्मत पर
इंसाफ़ का साफ़ा हम पहनाएँगे "

क्या बताए दारोगा बाबू
भीड़ की शक्ल तो नही होती
हाथ वो थे जो पाक दामन को छू ना पाए थे पहले
थी ज़ुबाने वो जिनकीछींटाकसी बेअसर थी पहले
आँखे वो थी जो हया से पारहुई जाती थी
रूह वो थी जो दफ़्न हो चुकी थीबेकासी के तमाशे के नीचे

दे सके तो हिम्मत दे अभागी को , दे सके तो दे विश्वास इसे
कि इंसानियत अभी भी ज़िंदा हे, इन्साफ यहाँ मिलता है

मैं एक अजनबी हूँ चलता हू ....
होश मे आए तो इसे कहना
भीड़ से निकले इक इंसान ने छोटी सी कोशिश कि थी
इंसानियत के पाक दामन से छींटो को कम करने की
हो इसका खुदा हाफिज़ हे यही दुआ मेरी