रविवार, मई 20, 2007

सलवटे.....

उठी सुबाह तो खुद को मुस्कुराते पाया
लगा कल रात सपने में था तू आया
तेरी उँगलियों की थर्कन बदन पर मिली
पलट के देखा तो बिस्तर पर
सलवटे थी पडी ......

लगा कल रात तू यही था यही
मेरी सान्सो में तेरी खुश्बू थी बसी
ख्वाब था शायद या था हक़ीक़त
तू यही था मेरे करीब ...
बहुत ही करीब.....

9 टिप्‍पणियां:

  1. The poem is explicitly romantic and implicitly nostalgic. Both facets have been captured well. It also has a certain sleepy, wandering quality which gives a youthful, carefree and a delicate...a bit inebriated essence to it. And if you read it again, it has a streak of longing in it......as if a wish came true but almost.

    It is a joy to read your work.

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  2. बहुत खूब-बहुत बेहतर. बधाई. लिखते रहें.

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  3. गायत्री जी, मन को अंदोलित करती एक भावपूर्ण सुन्दर रचना लिख ,संवेदनशील कवित्री होने का आभास करा गई है ।बधाई।

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  4. bahut achaacha likha ahe aap ne or jis "TU" ki baat ki hae aap ne nishchay hi bada bhagyashali hae... :)

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  5. aisi hakeekat jo bas ..khwaab mein hi sach hotee hai.. kaise samjhga koi..ki khwaabon mein bhi zindagi hoti hai..

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  6. कविता बहुत सुन्दर लगी..लिखते रहें...
    बधाई..

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  7. भोर की मुस्कराहट का राज कितना हसीन है.
    -Dr. R Giri

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