मंगलवार, मई 15, 2007

मंज़िल मंज़िल......एक कहानी

"क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ?" ये शब्द सुनकर मेरा ध्यान उन की तरफ गया जों रेलवे प्लेटफार्म पर मेरी सीट के पास खडे थे।
" जी" सकपका कर मैंने सीट पर फैला अपना समान समेटा और वो बैठ गए
" शताब्दी का इंतज़ार कर रही हो बेटी ? "........

" जी " जवाब देकर मैंने अपना ध्यान प्रेमचंद की "सेवासदन" की तरफ़ फिर से करना चाहा .

"क्या दिल्ली जा रही हो बेटी ? वो फिर बोले ।

बचपन में माँ ने सिखाया था" अजनबियों से बात नही करते " अधेढ़ उम्र हो गयी और दो बच्चो कि मा हूँ पर बरसो पहले की इस सीख ने कितने अनजाने रिश्तों को बनने से पहले ख़त्म दिया था ....पर ना जाने कैसी आत्मीयता और स्नेह था उनकी आवाज़ में, कि मैं अनायास ही बोल पड़ी " जी, मेरा मायक़ा हे मेरा वहाँ "।


" सामान बहुत हे बेटी, लंबे समय के लिए जा रही हो ?", "जी' कहते मेरा गला भर आया ."अध्यापिका हूँ पहले यहीं अलीगंज में पढ़ाती थी, अब दिल्ली तबादले की अर्ज़ी दी है "

"और तुम्हारा परिवार..पति ,बच्चे ......?"


मेरी चुप्पी शायद बहुत कुछ कह गयी थी....जो लब ना कह सके,भीगी पलकों ने बयान कर दिया ...



कुछ देर की मौन के बाद वो मेरी तरफ़ मुड कर बोले "मेरे दो बेटे है ,बेटी...दोनो ख़ुश है अपने परिवारों के साथ ..........एक डॉक्टर है कनाडा में और दूसरा एंजिनीर, नेवार्क में ..कभी, कभी जाता हूँ उनसे मिलने...पर यहाँ से दूर नही रहा जाता...अपने वतन की ख़ुश्बू और इसमे दफ़न हुई यादें वापस खींच लाती है ....


"मेरी बहन है दिल्ली में...गर्मियों की छुट्टियों में उनके पास चला जाता हूँ ,वहाँ उसके पोते- पोती हे ,दिल लगा रहता है उनके साथ ... "

" और आपकी पत्नी...." अनायास मेरे मुँह से निकल गया.

बहुत देर शांत रहे और फिर बोले " बहुत साल पहले, मेरी पत्नी और मेरे बीच हुए एक झगड़े की वहज़ह से वो अपने मायक़े चली गयी ...... उसे लगता था की शायद मेरे पास उसके लिए वक़्त नही था, शायद मैं कभी उसे बता नही पाया वो मेरे लिए क्या मायने रखती है .........मैने ग़ुस्से में उसे घर छोड़ने के लिए कहा, और वो छोड़ गयी ........... बच्चे मेरे पास थे...कुछ दिन बीत गये और एक दिन ये ख़बर आई की कानपुर से लखनऊ आते वक़्त एक सड़क दुर्घटना में वो गंभीर रूप से घायल हो गयी थी ......."

मैने देखा कि उनकी आँखें नम थी ... आँखों से चश्मा उतार कर साफ़ करते हुए वो आगे बोले " मैं जब तक हस्पताल पहुँचा, वो अपनी अंतिम साँसें ले रही थी .....बस जाते जाते एक मुझे एक चिट्ठी थमा गयी जो शायद रैलवे प्लएटफ़ॉर्म पर बैठ कर मुझे लिखी थी " .......

"क्या था उस चिट्ठी में" मेरे गले से धीमी सी आवाज़ निकली।

एक पुराना काग़ज़ ,जिसने वक़्त की मार देती थी , मेरी तरफ़ बड़ा दिया... उसमे लिखा था,

"प्रिय पतिदेव,

कभी- कभी हम सुई को हाथी और हाथी को सुई समझ लेते है .....अगर छोटी छोटी बातों को भुला कर हम एक दूसरे कई भावनाओ का सम्मान करें , तो जीवन कितना सुखमय हो...
मैं कभी तुम्हे ये ना कह सकी जो आज लिख रही हूँ ---------
काश आप मुझे कभी बोल सकते की आप मुझे कितना चाहते है ......मैं दुनिया के सारे कष्ट सह सकती हूँ पर आपकी रुसवाई और बेरूख़ी मेरे सम्मान को मंज़ूर नही ...आज आपने मुझे घर छोड़ने के लिए कहा, मैं घर से निकल गयी ..... काश, अपने एक बार मुझे रुकने के लिए कहा होता.... जो बात आप आज नही समझे, मेरे जाने के बात समझेंगे"...

आपकी, सिर्फ़ आपकी,

"उर्मी"......

काग़ज़ को वापस जेब में डालते हुए वो बोले "इससे मैं हमेशा अपने पास रखता हूँ और अब मेरेएकाकी जीवन का यही सहारा है ..... उर्मिला की बात तो मैं समझा , जब तक समझा वो चली गयी थी,अकेले......"

बहुत सन्नाटा सा छा गया था हुमरे आस पास तभी दूर से आती हुई ट्रैन की सीटी से हुमारा ध्यान भंग हुआ

डब्बा जैसे लगा ,बुज़ुर्गवार के कूलीए ने उनका समान गाड़ी में डालना शुरू किया. " आ रही हो बेटी?" उन्होने पूछा। "
"nahi बाबा, मैं घर जाऊंगी" मैं बोली...
उनके चहरे पर हलकी सी मुस्कान फैल गयी ....
फिर मिलेंगे बेटी....मेरी मंज़िल तो यही ही है"........ चलती गाड़ी से हाथ हिलते हुए उन्होने मुझसे अलविदा ली और मैंने घर जाने के लिए कुली को आवाज़ दी. हाथ में मोड़ा हुआ काग़ज़ मैने किताब के पन्नो में सहेज दिया......
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शाम को दरवाज़े की डोर बेल की आवाज़ पर दरवाज़ा खोला तो सामने बहुत थके हुए सुधीर दिकाई दिए आँखें लाल थी, लग रहा था की रोए थे शायद...
" सुधा, तुम ....." उनका गला भर आया और उन्होने जकड़ कर मुझे अपने आंलिनगान में ले लिया "मुझे लगा था शायद.........."
"शह्ह, ......मैने उनके होंठों पर उंगली रख उनके काँधे से सर लगा कर रो पड़ी...
बाहर सूरज ढल रहा था, अंधेरो का अब डर नही था मुझे ,मेरी मंज़िल जो अब मेरे साथ थी...दोबारा.... " धन्यवाद बाबा" ...मैने धीरे से मन बोला.......

4 टिप्‍पणियां:

  1. जब केवल कहानी के पात्रों की ही नहीं बल्कि पाठक की आँखें भी नम हो जायें तो इस का पूरा श्रेय लेखिका और उस की लेखनी को जाता है। जिस सुंदरता और साधारनता से तुम ने एक मामूली मुलाकात का इतना सशक्त वर्णन किया है, वह सराहनीय है। भाषा और भावों का चुनाव एकदम उप्युक्त है। कहानी का अंत में अहं की पराजय और प्रेम की विजय का संदेश और सीख अवश्य ही पाठकों के दिल पर दस्तक देगी।

    कहानी का शीर्षक कहानी के साथ न्याय करता है।

    इस रचना पर मेरी बधाई स्वीकर करें। अगली कहानी का इंतज़ार रहेगा।

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  2. वाह, बहुत सुंदर कहानी.बहुत बधाई.

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  3. शेखर जी,डाक्टर साहब, लाल जी :
    बहुत शुक्रिया, इस रचना को पड कर इसका भाव समझने के लिये

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