रविवार, मई 27, 2007

मेरे प्रिय

इन बैरागी नैनन का चित्त ना जाने कोई
देख तुम्हे अनदेखा कर दे
ना देखे तो व्याकुल होये......
इन् मदमाते अधरो का
भेद ना जाने कोई
संग तुम हो तो मौन रहे
तुम जाओ तो तेरा नाम जप लोय.....

इन् बैरन कदमो का
राज़ ना जाने कोई
साथ तुम्हारे ना चले,
तुम जाओ तो पीछे होये.....

मन मे बसे तुम सान्वरे
तुम क्यू ये ना समझे
ना मेरी मे हां हे छुपी
क्या तुम समझे
हा, तुम अब समझे…

और अब, मे पूर्ण तेरी हुई प्रिय

6 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम के प्रति समर्पण की भावनाओ को दर्शाती एक सुन्दर रचना है। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. भागते मन को भी कोई बंधन चाहिए…मगर मन तो खोजी और तलाश उसकी करता है जिसे वह रम सके।
    बहुत सुंदर रचना!!!

    जवाब देंहटाएं
  3. डिवाइन इडिया जी, परमजीत जी,विकास जी :
    मेरी रचना को सहारने के लिये शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  4. एक अनोखी अदा है इस कविता में…एक मुलायम एहसास, स्त्रीत्व का नटखटपन, उसके मन की नाज़ुक चपलता और अपने प्रिय द्वारा समझ लिये जाने की आशा और विश्वास साफ़ झलकता है। एक नारी के मन के कोमल रहस्य को खोलती भाव-भीनी रचना पढ़ कर कुछ गुदगुदी सी महसूस हुई।

    वाह जनाब वाह!!!

    जवाब देंहटाएं