शुक्रवार, फ़रवरी 20, 2009

कारपोरेट ज़िन्दगी

ज़िन्दगी के मायने कुछ धुंधलाने लगे है
"फार्मोलों "से आगे "बिज़नस सूट "आने लगे है

दफ्तरों से निकल बाहर पंहुचा है व्यापार
"गोल्फ कोर्सों " पे अब शामियाने सजे है

हाई क्लास के "वाईनींग डायनिंग "करे हैं
बेकार "मिडनाईट आयल " जलाने लगे है

फलसफे नए रोज़ आने लगे है
हो सच वो या सौदा भुनाने चले है

खुदाई के बन्दे वहां तक है पहुंचे
जहा रोज़ खुदा नए नज़र आने लगे है

मायने ज़िन्दगी के धुंधलाने लगे है
मायने ज़िन्दगी के भुलाने लगे है ......
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वाह वाही की ज़िन्दगी शाही ही सही
आइना दिखा सके सच्चा साथी वही

क्यूँ हो गया हूँ फिर मैं भीड़ में तन्हा .....

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10 टिप्‍पणियां:

  1. गायत्री जी,बहुत बढिया व सामयिक रचना लिखी है।बधाई।

    खुदाई के बन्दे वहां तक है पहुंचे
    जहा रोज़ खुदा नए नज़र आने लगे है

    मायने ज़िन्दगी के धुंधलाने लगे है
    मायने ज़िन्दगी के भुलाने लगे है .....

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  2. लगता है पेज थ्री पढ़ रहा हू.. बहुत सही लिखा है..

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  3. दफ्तरों से निकल बाहर पंहुचा है व्यापार
    "गोल्फ कोर्सों " पे अब शामियाने सजे है

    हाई क्लास के "वाईनींग डायनिंग "करे हैं
    बेकार "मिडनाईट आयल " जलाने लगे है
    बहुत बढिया व सामयिक रचना

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  4. सामयिक रचना समझने के लिए शुक्रिया।

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  5. gayatriji,aapke blog par pahli baar aaya,corporate life par aapke lafzon ko parha,achha laga,ab aapki her kavita parhane ki koshish karoonga.kabhi mere blog "meri awaaz suno" par bhi aayen.

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  6. लाजबाब रचना गायत्री जी अपपने बड़ी कुशलता से व्यंग की छु री चलाई है
    मेरे ब्लॉग पर पधार कर "सुख" की पड़ताल को देखें पढ़ें आपका स्वागत है
    http://manoria.blogspot.com

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