रविवार, मई 10, 2009

ज़िन्दगी बहुत सस्ती है ,..

पल चिन्न है,छिन पल है
रोज़ सड़को पे बिकती है
पानी है यहाँ महंगा हुज़ूर
पर ज़िन्दगी बहुत सस्ती है ...

चौराहे के खूंटे पे सूखती
कड़ी तराशे सिसकती है
टूटी चूडियों के टुकड़े सहेज
कलाईया कफ़न से लिपटती है

वक़्त बहुत महंगा है हुज़ूर
पर ज़िन्दगी बहुत सस्ती है ....

अखबार की सुर्खियाँ शब् भर
लाल स्याही से चमकती है
सुबह कालिख हर्फो की
दर्द से कराह उठती है ...

"कल रात तेज़ दौड़ती गाडी
एक चिराग को बुझा उडी "

रुको, संभल के चलो
ऊँचे नभ में उड़ने वालो
ज़िन्दगी तुम्हारी भी कभी
सडको पे निकलती है ....

क्या अब भी जीने की कीमत
तुम को कम दिखती है ???

12 टिप्‍पणियां:

  1. आज के आपाधापी भरे जीवन का अच्छा चित्रण किया है आपने अपनी रचना में...बधाई...
    नीरज

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  2. यही तो हो रहा है आजकल.. बिलकुल सामयिक लेखन

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  3. बड़े दिनों बाद आमद.....पर जिंदगी के लिए आईने के साथ

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  4. zindagi ko aaina dikhane wali kavita ke lie badhai.bahut khubsurat likha hai aapne.jitni tareef ki jaye kam hai. kabhi mere blog par bhi aayen.
    www.salaamzindadili.blogspot.com

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  5. aapne behtarin rachna likhi hai.....aapke shabdo ka chunav bahut hi achha rahta hai.....

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  6. namaskar..

    bahut der se aapki kavitayen padh raha hoon ..is kavita ne man ko kahin rok sa diya hai .. aap bahut accha likhte hai ...aapki kavitao ki bhaavabhivyakti bahut sundar hai ji ..

    वक़्त बहुत महंगा है हुज़ूर
    पर ज़िन्दगी बहुत सस्ती है ....

    ye pankhtiyan apne aap me kuch kahti hai ...

    meri badhai sweekar kare,

    dhanyawad.

    vijay
    pls read my new poem :
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html

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  7. वक़्त बहुत महंगा है हुज़ूर
    पर ज़िन्दगी बहुत सस्ती है
    bahut sahi kaha .

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