शुक्रवार, जनवरी 25, 2008

मैं .....कौन.....पथ पर ...

कारवाँ गुज़र गये
मैं कही नही गया
बीती सदियान कई
था वक़्त मेरा थम गया ....

कितने राज पाट देखे
राजा बन फकीर देखे
फ़ासले घटते रहे
तूफान भी गुज़र चले
पर था खड़ा जहाँ
मैं कभी नही हिला .....

मैं.....मील का पत्थर...
गुज़रे इतिहास का गवाह...

रास्तो के किनारे पे
आज भी वहीं खड़ा
जहाँ मैं गाड़ा गया था
कई सदियों पहले बन निशाँ .....

बन इत्तिहास का मौन गवाह
मैं... मील का पत्थर.....
मैं....मौन दर्शक......
मैं ....मूक श्रोता .......

7 टिप्‍पणियां:

  1. मानव जीवन के उन चुनींदा क्षणों को दर्शाती एक सुंदर कविता, जब हम अपने सबसे अधिक समीप होते हैं। यही निकटता इस बात का एहसास करवाती है कि हम सचमुच एक मील का पत्थर ही तो हैं जिसका स्वरूप और धर्म केवल आती-जाती घटनाओं का सक्षी होना है।

    बहुत ख़ूब। अवश्य ही लेखिका के जीवन के उन क्षणों की अभिवयक्ति, जब जो कुछ किया जा सकता है, किया जा चुका है, तथा अब तटस्थ बैठने के सिवा और कुछ शेष नहीं है।

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  2. "मैं.....मील का पत्थर...
    गुज़रे इतिहास का गवाह..."

    एक साधारण से थीम पर असाधारण रचना ......साधुवाद.

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