किसी ने था दामन खींचा और किसी ने सर से था घसीटा
हाथ कई उस पर पड़े थे ,कई लातो ने ठोकर जड़े थे
बस कसूर एक ही था उसका ,अबला थी -अकेली थी वो
कोशिश कर रही थी ज़िंदा रखने की
अपने अस्तित्वा को
अकेले ही ,अपने दम पर ,बिना किसी सरमाये के ....
"आप बस नाम बताइए सज़ा हम दिलवाएँगे
इसकी तार तार हुईअस्मत पर
इंसाफ़ का साफ़ा हम पहनाएँगे "
क्या बताए दारोगा बाबू
भीड़ की शक्ल तो नही होती
हाथ वो थे जो पाक दामन को छू ना पाए थे पहले
थी ज़ुबाने वो जिनकीछींटाकसी बेअसर थी पहले
आँखे वो थी जो हया से पारहुई जाती थी
रूह वो थी जो दफ़्न हो चुकी थीबेकासी के तमाशे के नीचे
दे सके तो हिम्मत दे अभागी को , दे सके तो दे विश्वास इसे
कि इंसानियत अभी भी ज़िंदा हे, इन्साफ यहाँ मिलता है
मैं एक अजनबी हूँ चलता हू ....
होश मे आए तो इसे कहना
भीड़ से निकले इक इंसान ने छोटी सी कोशिश कि थी
इंसानियत के पाक दामन से छींटो को कम करने की
हो इसका खुदा हाफिज़ हे यही दुआ मेरी
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भीड़ से निकले इक इंसान ने छोटी सी कोशिश कि थी
जवाब देंहटाएंइंसानियत के पाक दामन से छींटो को कम करने की
हो इसका खुदा हाफिज़ हे यही दुआ मेरी
--बहुत उम्दा भाव हैं.
बहुत खूब गायत्री जी ....कम से कम कुछ समय निकलकर आपने फ़िर एक बेहद मर्मस्पर्शी भाव उठा दिया.....लिखती रहे...
जवाब देंहटाएंएक कटु सत्य लिखा है आपने। और अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ख़ूब बन पड़ी हैं। बहुत अच्छी एवं सच्ची रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएं@लाल साहब ,डॉक्टर साहब और शेखर जी : शुक्रिया आपकी हौसला अफ्जाही का.
जवाब देंहटाएंbahut hradaysparshi kavita....dil ko chhoone wale bhaav.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना .. अन्य रचनाये भी बहुत सुन्दर है
जवाब देंहटाएं@Pallavi ji aur Piyush ji :Shukriya
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